नव उपनिवेशवाद के दौर में विश्व शक्तियों के जाल में उलझा भारत

विश्व राजनीति के इस दौर में जब शक्ति-संतुलन लगातार बदल रहा है, भारत स्वयं को एक ऐसे चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ हर दिशा में दबाव है। एक ओर अमेरिका है, जो स्वयं को अब भी विश्व का सर्वोच्च नेतृत्वकर्ता मानता है और चाहता है कि भारत उसकी एशियाई रणनीति का हिस्सा बने। दूसरी ओर चीन है, जो अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति से एशिया पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश कर रहा है और भारत की सीमाओं पर आक्रामकता दिखा रहा है। तीसरी ओर पाकिस्तान है, जो चीन की छत्रछाया में रहकर भारत को अस्थिर करने की नीतियाँ अपनाए हुए है।

इन सबके बीच सवाल उठता है: क्यों अमेरिका चीन और पाकिस्तान की तुलना में भारत पर अधिक आक्रामक दिखाई देता है? और क्या भारत इस दबाव को साध पाएगा या अंततः चीन के आगे झुकना पड़ेगा?


अमेरिका का भारत पर आक्रामक रुख

1. रणनीतिक अपेक्षाएँ

अमेरिका चाहता है कि भारत पूरी तरह से पश्चिमी खेमे में शामिल हो जाए, ठीक उसी प्रकार जैसे जापान, ऑस्ट्रेलिया या दक्षिण कोरिया शामिल हैं। उसके लिए भारत की स्थिति विशेष है—क्योंकि भारत यदि अमेरिका के साथ मज़बूती से खड़ा हो, तो चीन को एशिया में घेरना आसान होगा।

लेकिन भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) को छोड़ने को तैयार नहीं है।

रूस से वह रक्षा संबंध बनाए रखता है।

ईरान से ऊर्जा सहयोग जारी है।

BRICS और SCO जैसे मंचों पर भी सक्रिय रहता है।


यह संतुलन अमेरिका को स्वीकार नहीं। परिणामस्वरूप अमेरिका भारत पर अपेक्षाकृत अधिक दबाव डालता है।


2. दुश्मन से अधिक मित्र से अपेक्षा

अमेरिका का कूटनीतिक मनोविज्ञान यह है कि वह अपने दुश्मनों को नियंत्रित करने की कोशिश करता है, लेकिन मित्र देशों से पूर्ण निष्ठा चाहता है। भारत उसकी नज़र में मित्र है, परंतु अधीन नहीं। यही बात उसे चुभती है और यही कारण है कि अमेरिका भारत पर आक्रामक टिप्पणी करता है—चाहे वह मानवाधिकार के नाम पर हो, धार्मिक स्वतंत्रता पर या फिर वीज़ा नीति और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर।


चीन और पाकिस्तान: अमेरिका की "सीमित आक्रामकता"

1. चीन पर सीधे टकराव से परहेज़

चीन अमेरिका का घोषित प्रतिद्वंद्वी है, लेकिन आर्थिक यथार्थ यह है कि अमेरिकी सप्लाई चेन, उपभोक्ता बाज़ार और कंपनियाँ चीन पर निर्भर हैं। चीन से पूर्ण टकराव अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती होगा। इसलिए अमेरिका चीन को "रणनीतिक प्रतियोगी" बताता है, परन्तु नियंत्रित प्रतिस्पर्धा तक ही सीमित रहता है।

2. पाकिस्तान की उपयोगिता

पाकिस्तान भले ही चीन का करीबी हो चुका है, परंतु अफगानिस्तान, मुस्लिम देशों और आतंकवाद-विरोधी समीकरणों में उसकी उपयोगिता बनी हुई है। अमेरिका उसे पूरी तरह छोड़ नहीं सकता। यही कारण है कि पाकिस्तान पर अमेरिका की आलोचना होती है, परन्तु आक्रामकता का असली निशाना भारत ही बनता है।

भारत की दुविधा और चुनौतियाँ

1. आर्थिक निर्भरता

भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार चीन है। अमेरिका भी निवेश और टेक्नोलॉजी के मामले में अपरिहार्य है। यानी भारत दोनों पर अलग-अलग कारणों से निर्भर है।

2. सैन्य संतुलन

चीन की सैन्य क्षमता भारत से कहीं अधिक है। अमेरिका भारत को "China Containment" का मोहरा बनाना चाहता है, लेकिन बिना किसी ठोस सैन्य गारंटी के। भारत के लिए यह एक गंभीर सुरक्षा चुनौती है।

3. कूटनीतिक उलझन

रूस से संबंध बनाए रखना बनाम अमेरिका की अपेक्षा।

चीन से टकराव बनाम आर्थिक ज़रूरत।

ग्लोबल साउथ का नेतृत्व बनाम पश्चिमी खेमे का दबाव।


भारत हर दिशा में संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यही संतुलन अमेरिका को असहज करता है।


भारत के सामने विकल्प

विकल्प A: अमेरिका के साथ पूरी तरह खड़ा होना

फ़ायदे:

टेक्नोलॉजी और निवेश का लाभ।

चीन के खिलाफ पश्चिमी समर्थन।


नुकसान:

रूस से संबंध बिगड़ेंगे।

ग्लोबल साउथ में भारत की छवि कमज़ोर होगी।

अमेरिका भारत को "जूनियर पार्टनर" के रूप में देखेगा।


विकल्प B: चीन के आगे झुकना

फ़ायदे:

सीमाओं पर अस्थायी शांति।

व्यापारिक लाभ।


नुकसान:

सम्प्रभुता पर चोट।

दक्षिण एशिया में भारत का प्रभाव घटेगा।

भारत "दूसरे दर्जे की शक्ति" बनकर रह जाएगा।


विकल्प C: स्वतंत्र शक्ति बने रहना

यही सबसे कठिन, परन्तु सबसे उपयुक्त विकल्प है।

अमेरिका से टेक्नोलॉजी और निवेश लेना।

रूस से रक्षा सहयोग जारी रखना।

चीन से संवाद भी, परन्तु चुनौती भी।

ग्लोबल साउथ को नेतृत्व देना ताकि भारत तीसरे ध्रुव (Third Pole) के रूप में उभरे।

क्या भारत इसे साध पाएगा?

1. हाँ, यदि—

भारत आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में तेज़ी से बढ़े और चीन पर निर्भरता घटाए।

सैन्य आधुनिकीकरण पर निवेश करे और रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बने।

कूटनीतिक स्तर पर अमेरिका और चीन दोनों को स्पष्ट संदेश दे कि भारत केवल अपने हितों के आधार पर नीति तय करेगा।


2. नहीं, यदि—

आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी।

आर्थिक विकास की रफ़्तार धीमी पड़ी।

बाहरी दबावों के आगे झुककर भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति छोड़ दी।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत ने "गुटनिरपेक्ष आंदोलन" के जरिये अपनी राह बनाई थी। शीत युद्ध के दबावों के बीच भारत ने न अमेरिका का मोहरा बना, न सोवियत संघ का। उसी नीति ने भारत को तीसरी दुनिया (आज का ग्लोबल साउथ) का नैसर्गिक नेता बनाया।

आज वही चुनौती दुबारा सामने है। अमेरिका और चीन दोनों चाहते हैं कि भारत उनके पाले में खड़ा हो। लेकिन भारत को तय करना होगा कि क्या वह अपनी स्वतंत्र राह बनाए रखेगा, या किसी एक शक्ति का अनुचर बन जाएगा।

अमेरिका की आक्रामकता और चीन की चालाकी के बीच भारत के लिए यही सही समय है कि वह अपनी नीति को स्पष्ट करे।

भारत यदि झुक गया तो वह या तो अमेरिका का मोहरा बनेगा या चीन का अनुचर।

लेकिन यदि भारत संतुलन साधते हुए अपनी ताक़त बढ़ाता रहा, तो वह एक स्वतंत्र वैश्विक शक्ति बनेगा।


इसलिए उत्तर स्पष्ट है—भारत को न अमेरिका के दबाव में झुकना है और न चीन के आगे घुटने टेकने हैं।
भारत की असली ताक़त उसकी स्वतंत्र विदेश नीति है, और वही उसे तीसरे ध्रुव के रूप में स्थापित करेगी।

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