क्योंकि मुझे डर नहीं लगता

बचपन से कैशोर्य तक जीवन का एक बड़ा हिस्सा कन्नौज में बीता, जहां घर में शाम ढलते ही घर लौट आने की हिदायत थी । हत्या, लूट और बलात्कार अपहरण के कारनामों से अखबार रंगे रहते थे और तब हमें लगता था कि गाजीपुर का हमारा इलाका शांत है । एक बार इटावा भी गया और संयोग से वहाँ के लोगों का डर देखने और महसूस करने का मौका मिला । भोर में जब हम कॉलेज के12-15 लड़के उस अनजान इलाके में कॉलेज कैंप से भोर में 4:30 पर दिशा-मैदान के लिए कॉलेज बेफिकर गाँव-खेत की ओर निकले और गाँव वाले डाकुओं के झुंड के अंदेशे में हमसे डर गए । पिता जी बिहार में माननीय लालू जी के जनपद में उनकी सरकार के दौरान पदस्थ थे और मैं वहाँ गर्मी की छुट्टियों में जाता रहा। तब चौराहे पर दौड़ा कर की जाती हत्याएँ और तमाशाबीन भीड़ के किस्से सुने और लोगों के डर को देखा-महसूस किया। जब कन्नौज से बनारस लौटा । घर के पास आगया तब गाजीपुर-आजमगढ़-जौनपुर के बादशाहों के नाम सुने, हत्याओं की खबरें पढ़ीं । गाँव से लेकर कस्बे और जिले तक हत्याओं की खबरे देखी, सुनी. पढ़ीं और प्रत्यक्ष महसूस भी किया; आम आदमी से लेकर विधायक और पार्षद तक की अनगिनत हत्याओं की शृंखला और उनमें से तमाम हत्याओं के पीछे गूँजता एक नाम, जिसे लेने में भी लोग डरते थे और इसीलिए मैं भी नहीं ले रहा हूँ (जानने वाले जानते होंगे) । तब महसूस हुआ कि डर यहाँ भी है । अब आया दिल्ली देश की राजधानी और महसूस किया कि आदमी यहाँ भी महफूज नहीं । डर यहाँ भी था । हत्या, लूट, बलात्कार की खबरें रोज उतनी ही मात्रा में, जितनी पहले के तमाम ठिकानों पर देखता, सुनता और पढ़ता आया । एक घटना होती काइनदिल मार्च निकलते, हल्ला मचाता लगता मीडिया ही सबको फांसी दे देगी, फिर सब शांत हो जाता ।

इसलिए मैं डर का इतना अभ्यस्त हूँ कि आज मुझे डर नहीं लगता और मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि डर अचानक उग आया है । तब सोसल मीडिया नहीं था, जो डर की चर्चा करे । न ऐसा कोई गप्प का स्पेस था जहां जाति,धर्म, गोत्र से डर जोड़कर चर्चा की जाय । आज डर अगर है तो तब से और अगर फैल रहा है तो तबसे फैल रहा है, जब से मैं देख रहा हूँ या उससे भी पहले जब मेरा वजूद नहीं था । इस सरकार की नाकामी यह है कि वह इस फैलते हुए डर को पिछली सरकारों की तरह ही रोकने में अक्षम रही है। उसने हिंसा और डर के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाए और उसे पहले की तरह फैलाने दिया । इस डर का शिकार तब भी आम आदमी था और आज भी । फर्क यह है कि खास के भीतर के डर को आवाज देने के लिए हर कोई तैयार है और आम का डर अनसुना है । किसी खास की हत्या पर काइनदिल मार्च निकाल पड़ेंगे और आम की लाश पर उसके घरवाले भी रो सकने में डरेंगे । आज डर की बात खास लोगों के गले से निकाल रही है, इसलिए देश डरा हुआ है, पर जब तक घूराहू-निरहू डरते रहे, देश में अमन-चैन था ।

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