कनाडा–यूक्रेन के बहाने दबाव की राजनीति
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं कि महाशक्तियाँ अपने हित साधने के लिए प्रत्यक्ष तौर पर नहीं, बल्कि सहयोगी देशों और छोटे साझेदारों के माध्यम से दबाव बनाती हैं। अमेरिका इस नीति का सबसे बड़ा खिलाड़ी माना जाता है। खुले टकराव से बचते हुए, वह अपने “चांगु–मांगु” यानी छोटे सहयोगी राष्ट्रों को मोहरा बनाता है। यही कारण है कि भारत पर अमेरिका ने कभी सीधे तौर पर बड़े आरोप नहीं लगाए, बल्कि कनाडा और यूक्रेन जैसे देशों को आगे कर अपनी नीति लागू करने की कोशिश की।
कनाडा में खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उछालना और यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से भारत की रूस नीति पर सवाल उठवाना—ये दोनों घटनाएँ एक ही रणनीति के तहत समझी जानी चाहिएं। अमेरिका जो नहीं कहना चाहता, वह अपने सहयोगियों से कहलवाता है। यह “प्रॉक्सी डिप्लोमेसी” ही उसकी चिर-परिचित नीति है।
कनाडा को मोहरा बनाना: निज्जर प्रकरण
2023 में कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत में खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या हुई। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने तुरंत भारत पर आरोप लगाए कि इसमें भारतीय एजेंसियों का हाथ है।
यह आरोप अंतरराष्ट्रीय मंचों पर काफी चर्चा का विषय बना। हालांकि कनाडा ठोस सबूत पेश नहीं कर सका, लेकिन अमेरिका ने कनाडा का सार्वजनिक समर्थन कर भारत पर अप्रत्यक्ष दबाव डाला। गौरतलब है कि अमेरिका ने खुद कभी सीधे भारत पर आरोप नहीं लगाया।
असल में, अमेरिका जानता है कि भारत आज वैश्विक शक्ति संतुलन में निर्णायक भूमिका निभा रहा है। इसलिए वह खुलकर भारत से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता। मगर कनाडा जैसे सहयोगियों के माध्यम से भारत की छवि पर प्रश्नचिह्न खड़े करना उसकी रणनीति का हिस्सा है।
निज्जर प्रकरण से अमेरिका ने दो उद्देश्य साधे:
1. भारत की वैश्विक छवि पर दबाव डालना – ताकि भारत पश्चिमी देशों की आलोचना से घिरा रहे।
2. खालिस्तानी समूहों के प्रति नर्मी दिखाना – जिससे अमेरिका और कनाडा में बसे प्रवासी समुदायों का राजनीतिक लाभ लिया जा सके।
---
यूक्रेन को आगे करना: ज़ेलेंस्की का बयान
रूस–यूक्रेन युद्ध में भारत की नीति शुरू से ही संतुलित और तटस्थ रही है। भारत ने रूस से ऊर्जा खरीदना बंद नहीं किया और रक्षा सहयोग जारी रखा। अमेरिका चाहता था कि भारत रूस की निंदा करे और प्रतिबंधों में शामिल हो।
लेकिन भारत ने “रणनीतिक स्वायत्तता” की नीति पर चलते हुए पश्चिमी दबाव को स्वीकार नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि अमेरिका ने सीधा बयान देने के बजाय यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की से यह कहलवाया कि भारत ने रूस का पूरा साथ नहीं दिया, बल्कि कई मामलों में यूक्रेन का समर्थन किया है।
यह बयान सुनने में भारत के पक्ष में लगता है, लेकिन असल मायने में इसका उद्देश्य भारत–रूस संबंधों में अविश्वास पैदा करना था। अमेरिका का संदेश साफ था—भारत चाहे तटस्थ रहे, लेकिन उसकी छवि रूस और पश्चिम दोनों के बीच संदेह के घेरे में बनी रहनी चाहिए।
---
अमेरिका की Proxy Diplomacy: चांगु–मांगु नीति
अमेरिका का यह तरीका नया नहीं है। शीत युद्ध से लेकर आज तक उसने अक्सर सहयोगियों को ढाल बनाकर विरोधियों को घेरने की रणनीति अपनाई है।
वियतनाम युद्ध में दक्षिण वियतनाम,
अफगानिस्तान में पाकिस्तान और मुजाहिदीन,
इराक और सीरिया में विभिन्न गुटों का उपयोग,
— ये सब उसी “चांगु–मांगु कूटनीति” की मिसालें हैं।
भारत के मामले में अमेरिका प्रत्यक्ष आक्रामकता से बचता है क्योंकि भारत न तो उसका दुश्मन है और न ही उसका पूर्ण सहयोगी। वह एक ऐसा साझेदार है जिसे दबाव और सहयोग, दोनों के बीच संतुलित रखना पड़ता है।
इसलिए कभी कनाडा के जरिए खालिस्तान का मुद्दा उठाया जाता है, तो कभी यूक्रेन के जरिए रूस–भारत समीकरण में खटास डालने की कोशिश होती है।
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता
भारत की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उसने किसी एक खेमे में पूरी तरह झुकने से इनकार किया है।
रूस से रक्षा सहयोग – भारत की अधिकांश हथियार प्रणालियाँ रूस पर आधारित हैं। ऊर्जा क्षेत्र में भी रूस भारत का भरोसेमंद साझेदार है।
अमेरिका से तकनीकी और इंडो-पैसिफिक सहयोग – क्वाड (Quad) और रणनीतिक साझेदारी में भारत अमेरिका के साथ खड़ा है।
यूरोप और खाड़ी देशों से संतुलित रिश्ते – ऊर्जा, निवेश और श्रमबल की ज़रूरतों के कारण भारत ने यूरोप और खाड़ी देशों से भी गहरे संबंध बनाए रखे हैं।
भारत की विदेश नीति का यही बहु-संतुलित रूप अमेरिका को असहज करता है। वह चाहता है कि भारत पूरी तरह उसके खेमे में आए। लेकिन भारत ने “मल्टी-अलाइनमेंट” (multi-alignment) का रास्ता चुना है, जो उसकी स्वतंत्र विदेश नीति की पहचान है।
कनाडा–भारत संबंध: सुधार की कोशिशें और नए विवाद
निज्जर प्रकरण के बाद भारत और कनाडा के रिश्ते काफी तनावपूर्ण हो गए। राजनयिकों की संख्या कम की गई, व्यापार वार्ताएँ ठप हो गईं और लोगों के बीच अविश्वास बढ़ा।
लेकिन धीरे-धीरे रिश्ते सुधार की ओर बढ़ रहे थे। ठीक तभी अमेरिका ने दोबारा निज्जर और पुन्नू प्रकरण को हवा दी। यह संयोग नहीं था, बल्कि सोची-समझी रणनीति थी। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत–कनाडा संबंध पूरी तरह सामान्य हो जाएँ, क्योंकि वह इस मोर्चे को दबाव के एक औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है।
भारत–रूस संबंधों में दूरी लाने की कोशिश
भारत और रूस दशकों पुराने साझेदार हैं। शीत युद्ध के समय से ही रूस भारत का सबसे बड़ा समर्थक रहा है। लेकिन अमेरिका को यह रिश्ते हमेशा खटकते हैं।
यूक्रेन युद्ध ने इस असुविधा को और गहरा किया। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस से दूरी बनाए। लेकिन भारत ने रूस से सस्ता तेल खरीदकर अपनी अर्थव्यवस्था को राहत दी और हथियारों के मोर्चे पर भी सहयोग जारी रखा।
ज़ेलेंस्की से बयान दिलवाना उसी रणनीति का हिस्सा था—भारत को यह महसूस कराना कि रूस भी अब उस पर संदेह कर सकता है।
वैश्विक दक्षिण में भारत की भूमिका
आज भारत “ग्लोबल साउथ” की आवाज़ बनकर उभर रहा है। जी–20 की अध्यक्षता और अफ्रीका संघ को सदस्यता दिलाने जैसे कदमों ने भारत की अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ाई है। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत इस भूमिका में पूरी तरह स्वतंत्र हो।
यही कारण है कि वह छोटे सहयोगियों को आगे कर भारत को बार-बार घेरने की कोशिश करता है।
अमेरिका की “चांगु–मांगु कूटनीति” यानी प्रॉक्सी डिप्लोमेसी लंबे समय तक जारी रहेगी। कभी कनाडा, कभी यूक्रेन, कभी यूरोप—वह भारत को दबाव में लाने के लिए नए–नए मोहरे सामने लाता रहेगा।
लेकिन भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी रणनीतिक स्वायत्तता है। जब तक भारत संतुलन बनाए रखता है और अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है, तब तक वह किसी भी “चांगु–मांगु” कूटनीति का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सकता है।
टिप्पणियाँ