भारत में लॉलीपॉप राजनीति के युवा चेहरे और नेपाल का जनरेशन z


 भारत की लॉलीपॉप राजनीति: जातिवाद, क्षेत्रीय विभाजन और नकली सेक्युलरिज़्म का संकट 


प्रस्तावना


भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ की राजनीति को लेकर पूरी दुनिया में चर्चा होती है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र में गहरी गिरावट देखने को मिली है। एक ओर विकास और सुशासन का आदर्श है, तो दूसरी ओर मुफ्त योजनाओं, जातिवादी ध्रुवीकरण, तुष्टिकरण और अल्पकालिक लोकप्रियता की राजनीति है। इसे ही आम भाषा में लॉलीपॉप राजनीति कहा जा सकता है—ऐसी राजनीति जिसमें जनता को असली समाधान देने की बजाय केवल तात्कालिक “मिठास” बाँटी जाती है।


राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे नेता इस राजनीति की ताज़ा मिसाल हैं। ये नेता अक्सर खुद को युवाओं का प्रतिनिधि और सेक्युलर मूल्यों का वाहक बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके राजनीतिक आचरण से साफ झलकता है कि वे भी उसी पुरानी धारा के हिस्से हैं, जहाँ जाति, धर्म और क्षेत्रीय समीकरण ही सत्ता का असली आधार बने हुए हैं।



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1. लॉलीपॉप राजनीति की परिभाषा और पृष्ठभूमि


भारतीय राजनीति में लॉलीपॉप राजनीति का उदय कोई अचानक की घटना नहीं है।


1970 के दशक में इंदिरा गांधी ने “गरीबी हटाओ” नारे से जनता को आकर्षित किया। यह नारा भावनात्मक था, लेकिन गरीबी का स्थायी समाधान नहीं दे पाया।


1990 के दशक में मंडल आयोग और आरक्षण की राजनीति ने समाज को स्थायी जातिगत खाँचों में बाँट दिया।


2000 के बाद से राज्य सरकारों ने मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त लैपटॉप और पेंशन जैसी योजनाएँ शुरू कीं। इनसे वोट तो मिले, लेकिन शिक्षा, उद्योग और रोज़गार जैसे दीर्घकालिक सुधार पीछे छूट गए।



यही परंपरा आज भी जारी है। जनता को तात्कालिक संतोष देना आसान है, लेकिन असली सुधार कठिन। इसीलिए नेताओं ने आसान रास्ता चुना—लॉलीपॉप बाँट दो, वोट पक्का कर लो।



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2. राहुल गांधी की राजनीति – हवा, नारे और तुष्टिकरण


राहुल गांधी लंबे समय से भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन उनका नेतृत्व आज तक अस्पष्ट और अस्थिर रहा है।


वे “भारत जोड़ो यात्रा” जैसी मुहिम निकालते हैं, लेकिन इनका असर स्थायी संगठनात्मक मज़बूती में नहीं दिखता।


वे किसानों के लिए कर्ज़माफी, युवाओं के लिए रोजगार गारंटी और गरीबों के लिए न्यूनतम आय जैसी योजनाओं का वादा करते हैं, लेकिन इसके लिए आर्थिक खाका नहीं देते।


उनकी राजनीति का बड़ा हिस्सा केवल भाजपा-विरोध तक सीमित रहता है।



सबसे बड़ा संकट यह है कि राहुल गांधी ने “सेक्युलरिज़्म” को भी तुष्टिकरण में बदल दिया। वे अक्सर केवल मुस्लिम बहुल इलाकों में जाकर खास संदेश देते हैं, जिससे बाकी समाज में अविश्वास पैदा होता है। इस तरह सेक्युलरिज़्म का आदर्श खोकर राजनीति केवल वोट बैंक तक सीमित हो जाती है।



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3. अखिलेश यादव – जातिवादी समीकरण और सीमित दृष्टि


उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव का आधार “MY” (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर टिका है।


वे विकास की बात करते हैं, लेकिन उनकी सारी रणनीति जातीय और धार्मिक आधार पर वोट बटोरने तक सीमित रहती है।


उनकी सरकार में मुफ्त लैपटॉप और स्मार्टफोन बाँटे गए, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी व्यवस्था सुधारने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।


उनका विपक्षी विमर्श अक्सर ठोस नीतियों की बजाय भाजपा-विरोध और जातीय समीकरणों पर आधारित होता है।



अखिलेश की राजनीति का सबसे बड़ा खतरा यह है कि वह क्षेत्रीय और जातिवादी पहचान को राष्ट्रीय विमर्श से ऊपर रखती है। इससे लोकतंत्र कमजोर होता है और समाज स्थायी रूप से बँटता जाता है।



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4. तेजस्वी यादव – बिहार में लुभावने वादे और जातिगत ध्रुवीकरण


बिहार की राजनीति लंबे समय से जातिवाद और पिछड़ेपन से जकड़ी रही है। तेजस्वी यादव इस राजनीति के नए चेहरे हैं।


वे युवाओं को 10 लाख नौकरियों का वादा करते हैं, लेकिन इसके लिए ठोस नीति और आर्थिक साधन नहीं बताते।


उनकी राजनीति मुख्य रूप से “MY समीकरण” (मुस्लिम-यादव) पर आधारित है, जो बिहार को स्थायी जातीय खाँचों में बाँट देती है।


वे भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे परिवार की विरासत ढोते हैं, जिससे उनकी साख कमजोर रहती है।



तेजस्वी की राजनीति भी लॉलीपॉप की ही श्रेणी में आती है—वादे बड़े, नतीजे शून्य।



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5. सेक्युलरिज़्म का नकाब – सांप्रदायिक तुष्टिकरण


भारतीय राजनीति में सेक्युलरिज़्म को संविधान ने सर्वोच्च मूल्य माना है। लेकिन आज कई नेता इसका उपयोग केवल वोट बैंक बनाने के लिए करते हैं।


वे एक खास समुदाय की तुष्टिकरण नीतियों को “सेक्युलर” कहकर पेश करते हैं।


वास्तव में यह सांप्रदायिक राजनीति का ही दूसरा रूप है।


जब हिंदुओं की मांगों को “सांप्रदायिक” और मुस्लिम तुष्टिकरण को “सेक्युलर” कहा जाता है, तब समाज में गहरा असंतोष और अविश्वास फैलता है।



यह नकली सेक्युलरिज़्म ही भारतीय राजनीति को और विभाजित करता है।



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6. जातिवाद, क्षेत्रीयता और लॉलीपॉप राजनीति से खतरे


1. सामाजिक विभाजन – जाति और धर्म पर आधारित राजनीति समाज को स्थायी रूप से बाँट देती है।



2. राष्ट्रीय एकता पर आघात – क्षेत्रीय दल केवल अपने राज्य या जाति के हित तक सीमित रहते हैं, जिससे राष्ट्रीय दृष्टि कमजोर होती है।



3. आर्थिक बोझ – मुफ्त योजनाएँ सरकारी खजाने पर भारी पड़ती हैं और वास्तविक विकास रुक जाता है।



4. युवाओं का भटकाव – रोजगार, कौशल और शिक्षा की बजाय युवाओं को मुफ्तखोरी और जातीय पहचान पर टिकाना उन्हें दीर्घकालिक रूप से कमजोर बनाता है।





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7. नेपाल से सबक


नेपाल में माओवादी आंदोलन ने भी जनता को समानता और विकास का सपना दिखाया था। लेकिन जब वही आंदोलन सत्ता में आया तो वहाँ भी गुटबाज़ी, भ्रष्टाचार और विदेशी हस्तक्षेप शुरू हो गया। आज नेपाल की Z-Generation बेरोज़गारी और पलायन के संकट से जूझ रही है।


भारत में अगर लॉलीपॉप राजनीति, जातिवाद और तुष्टिकरण जारी रहा तो स्थिति नेपाल जैसी ही अस्थिर हो सकती है।



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8. भारत का भविष्य: ठोस नीति बनाम लॉलीपॉप राजनीति


भारत के पास आज एक बड़ा अवसर है।


यहाँ युवा आबादी, विशाल बाज़ार और लोकतांत्रिक संस्थाएँ मौजूद हैं।


अगर राजनीति शिक्षा, कौशल, उद्योग और सुशासन पर केंद्रित हो तो भारत 21वीं सदी का नेतृत्व कर सकता है।


लेकिन अगर राजनीति केवल लॉलीपॉप, जातिवाद और तुष्टिकरण पर केंद्रित रही तो यह अवसर खो जाएगा।




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निष्कर्ष


राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे नेता स्वयं को युवा और आधुनिक दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी राजनीति पुराने ढर्रे पर ही चलती है—मुफ्त योजनाएँ, जातिवादी समीकरण और नकली सेक्युलरिज़्म।


भारत के लोकतंत्र को बचाने और मज़बूत करने के लिए आवश्यक है कि जनता ऐसे नेताओं को नकारे और उन नेताओं को चुने जो ठोस नीतियाँ, दूरदर्शी दृष्टि और राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता दें।


लोकतंत्र केवल हवा, नारे और लॉलीपॉप पर नहीं चलता।

उसे चाहिए—स्थिर संस्थाएँ, दूरदर्शी नेतृत्व और समाज को जोड़ने वाली राजनीति।


अगर भारत समय रहते इस खतरे को नहीं पहचानता, तो वह भी उसी अराजकता की ओर बढ़ सकता है, जिसकी आग में नेपाल पहले से झुलस रहा है।


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