नेपाल–बांग्लादेश की अराजकता और भारत के लिए नया आसन्न संकट

 


चीन, इस्लामी प्रभाव, क्रिश्चियन मिशनरियाँ और भारत की लॉलीपॉप राजनीति का विश्लेषण



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भूमिका


दक्षिण एशिया आज जिस उथल–पुथल से गुजर रहा है, वह केवल भूगोल या सीमाओं का सवाल नहीं है, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और सुरक्षा की गहरी चुनौती है। भारत के दोनों महत्वपूर्ण पड़ोसी—नेपाल और बांग्लादेश—तेजी से अस्थिरता की ओर बढ़ रहे हैं। नेपाल, जो कभी दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था, आज विदेशी ताक़तों के दबाव, चीन की दखलअंदाजी, खाड़ी देशों से आने वाले इस्लामी प्रभाव और पश्चिमी मिशनरियों के खेल में फंसकर पहचान संकट झेल रहा है। वहीं बांग्लादेश, जिसने 1971 में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में जन्म लिया था, आज छात्र आंदोलनों, कट्टरपंथ और राजनीतिक दमन के चलते एक नए अराजक दौर से गुजर रहा है।


भारत के लिए यह केवल “पड़ोसी देशों का संकट” नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से उसकी सीमा सुरक्षा, सांस्कृतिक पहचान और आंतरिक राजनीति से जुड़ा प्रश्न है। अगर नेपाल और बांग्लादेश दोनों ही विदेशी ताक़तों या कट्टरपंथी समूहों की कठपुतली बन गए, तो भारत के चारों ओर अस्थिरता का घेरा कस जाएगा।



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भाग 1 – नेपाल की कहानी: हिन्दू राष्ट्र से सेक्युलर गणराज्य तक


1. राजशाही से गणतंत्र तक का संक्रमण


नेपाल का इतिहास सदियों तक शाह वंश की राजशाही से जुड़ा रहा। राजा को “हिन्दू धर्मरक्षक” और राष्ट्र का प्रतीक माना जाता था। 1990 तक नेपाल पूर्ण राजशाही था, लेकिन वैश्विक लोकतांत्रिक लहर और आंतरिक दबाव ने इसे संवैधानिक राजशाही बना दिया। 2001 में महल कांड (राजा बीरेन्द्र और परिवार की हत्या) ने जनता का विश्वास तोड़ दिया। इसके बाद राजा ज्ञानेन्द्र का शासन जनता में अलोकप्रिय हुआ।


2006 में हुए जनआंदोलन और 10 साल के माओवादी “जनयुद्ध” के बाद नेपाल ने 2008 में राजशाही को समाप्त कर “संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य” का रूप ले लिया। इसी के साथ नेपाल ने खुद को “धर्मनिरपेक्ष” घोषित कर दिया और दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र समाप्त हो गया।


2. माओवादी आंदोलन और लोकतंत्र की विफलता


माओवादी आंदोलन ने वंचित वर्गों और युवाओं को “नई क्रांति” का सपना दिखाया। लेकिन जब वे सत्ता में आए तो जनता को केवल भ्रष्टाचार, अस्थिरता और गुटबाज़ी मिली। लोकतंत्र ने स्थिरता नहीं दी, बल्कि हर साल बदलती सरकारें और आपसी झगड़े ही दिखाए। नतीजतन जनता आज कहने लगी है—“राजा आऊ, देश बचाऊ।”


3. चीन की सक्रियता


चीन ने नेपाल को अपनी रणनीति का औज़ार बना लिया।


सड़क, रेल और बांधों में भारी निवेश किया गया।


2019–21 के दौरान चीनी राजदूत होउ यांकी ने सीधे राजनीतिक दलों के बीच मध्यस्थता की—यह किसी स्वतंत्र राष्ट्र की संप्रभुता पर सीधा आघात था।


कम्युनिस्ट दलों में चीन की पकड़ इतनी मज़बूत है कि वे आज भी बीजिंग के इशारे पर चलने को तैयार रहते हैं।



4. इस्लामी प्रभाव और मध्यपूर्व का असर


नेपाल के लाखों मजदूर खाड़ी देशों में काम करते हैं। वे न केवल आर्थिक रेमिटेंस लाते हैं बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव भी। तराई क्षेत्र में मस्जिदों, मदरसों और इस्लामी संगठनों की संख्या बढ़ रही है। यह धीरे-धीरे नेपाल की धार्मिक संरचना को बदल रहा है।


5. क्रिश्चियन मिशनरियाँ


1990 के बाद से नेपाल में चर्च और मिशनरियाँ सक्रिय हो गईं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर गरीब और दलित वर्ग को धर्मांतरण की ओर मोड़ा गया। आधिकारिक आंकड़े भले सीमित दिखें, लेकिन ज़मीनी सच्चाई है कि नेपाल की ईसाई आबादी पिछले दो दशकों में कई गुना बढ़ चुकी है।


6. Z जनरेशन और छात्र राजनीति


नेपाल की नई पीढ़ी सोशल मीडिया और छात्र संगठनों के ज़रिए राजनीति में सक्रिय है। लेकिन वे भी बांग्लादेश की तरह दलों के औज़ार बन गए हैं।


पढ़ाई और कैरियर से अधिक समय राजनीतिक नारों में जा रहा है।


“लॉलीपॉप राजनीति” यानी मुफ्त योजनाओं और वादों ने युवाओं को भ्रमित कर रखा है।


इस पीढ़ी की निराशा और असंतोष विदेशी शक्तियों के लिए ईंधन बन रही है।




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भाग 2 – बांग्लादेश का परिदृश्य: छात्र अराजकता और कट्टरपंथ


1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश ने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में जन्म लिया। लेकिन कुछ ही वर्षों में वहां भी राजनीतिक अस्थिरता, सैन्य तख्तापलट और अंततः इस्लामी पहचान का प्रभाव बढ़ने लगा।


2. छात्र आंदोलनों की परंपरा


बांग्लादेश की राजनीति में छात्र आंदोलनों का इतिहास लंबा है। 1952 का “भाषा आंदोलन” और 1971 की स्वतंत्रता संग्राम में छात्रों की अग्रणी भूमिका रही। लेकिन बाद में यह ऊर्जा दलों ने हथिया ली।


हाल के वर्षों में—


“कोटा आंदोलन” (सरकारी नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ),


“रोड सेफ्टी आंदोलन” (छात्रों की सड़क हादसों में मौत के खिलाफ)

ने लाखों युवाओं को सड़क पर उतार दिया।



शुरुआत में ये genuine आंदोलन थे, लेकिन धीरे-धीरे कट्टरपंथी और विपक्षी दलों ने इन्हें भड़काने का औज़ार बना लिया।


3. कट्टरपंथ का उभार


मदरसों और इस्लामी संगठनों ने छात्र असंतोष को अपनी विचारधारा से जोड़ दिया।


हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम जैसे संगठनों ने शिक्षा और सड़कों पर अपनी पकड़ मज़बूत की।


परिणाम: बांग्लादेश की राजनीति और समाज में कट्टरपंथी दबाव बढ़ा।



4. युवाओं का मोहभंग


ज्यादातर छात्र आंदोलनों का अंत दमन, हिंसा और मोहभंग में हुआ।


एक पूरी पीढ़ी निराशा में घिरी।


पढ़ाई और रोजगार के बजाय राजनीतिक हिंसा और बेकारी ने उन्हें घेर लिया।




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भाग 3 – नेपाल और बांग्लादेश: समानताएँ


1. छात्र राजनीति – दोनों देशों में छात्र पढ़ाई से अधिक राजनीति का औज़ार बने।



2. विदेशी हस्तक्षेप – नेपाल में चीन-मिशनरी-खाड़ी का खेल, बांग्लादेश में खाड़ी और पश्चिमी दबाव।



3. कट्टरपंथ – नेपाल में उभरता इस्लामी और ईसाई प्रभाव, बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ।



4. अस्थिर नेतृत्व – दोनों देशों की सरकारें जनता को स्थिर शासन देने में विफल।



5. जनता का मोहभंग – युवाओं को कोई भविष्य नज़र नहीं आता, इसलिए वे या तो विदेश पलायन करते हैं या आंदोलनों का हिस्सा बन जाते हैं।





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भाग 4 – भारत के लिए परिणाम


1. सुरक्षा खतरे


नेपाल अगर चीन का मोहरा बनता है, तो भारत की उत्तरी सीमा असुरक्षित होगी।


बांग्लादेश अगर कट्टरपंथियों के कब्ज़े में जाता है, तो भारत के पूर्वी क्षेत्र (पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा) पर दबाव बढ़ेगा।


दोनों ही हालात में भारत के लिए दो मोर्चों पर खतरा खड़ा होगा।



2. सांस्कृतिक खतरे


नेपाल का हिन्दू राष्ट्र से दूर जाना भारत की सभ्यता पर सीधा असर है।


बांग्लादेश की इस्लामी कट्टरपंथी दिशा भारत की धार्मिक असंतुलन को भड़का सकती है।



3. आंतरिक राजनीति


भारत में भी राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे नेता लॉलीपॉप राजनीति और जातिवादी-क्षेत्रीय विभाजन की दिशा में राजनीति करते हैं।


मुफ्त योजनाओं और नारों से युवाओं को लुभाना,


सेक्युलरिज़्म के नाम पर सांप्रदायिक तुष्टिकरण करना,


और विदेशी विमर्श की भाषा बोलना—

ये सब नेपाल-बांग्लादेश की स्थिति की झलक भारत में भी दिखाते हैं।




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भाग 5 – समाधान और भारत की रणनीति


1. सांस्कृतिक कूटनीति – भारत को नेपाल में अपनी सांस्कृतिक जड़ों को मज़बूत करने के लिए शिक्षा, तीर्थ और संस्कृति का उपयोग करना होगा।



2. युवा नीति – नेपाल-बांग्लादेश के छात्रों को सही दिशा देने के लिए भारत को छात्रवृत्ति, प्रशिक्षण और टेक्नोलॉजी साझेदारी करनी चाहिए।



3. सुरक्षा सहयोग – सीमाओं पर कड़ी निगरानी और खुफिया सहयोग बढ़ाना होगा।



4. आंतरिक राजनीति का सुधार – भारत को अपनी राजनीति को जातिवाद और मुफ्तखोरी से निकालकर विकास और राष्ट्रवाद की ओर मोड़ना होगा।

नेपाल और बांग्लादेश आज अराजकता की उसी राह पर हैं, जिस पर उन्हें विदेशी ताक़तें और अंदरूनी कमजोरियाँ धकेल रही हैं। नेपाल अपनी हिन्दू पहचान खोकर विदेशी ताक़तों का मोहरा बन रहा है, जबकि बांग्लादेश छात्रों और कट्टरपंथ के दबाव में टूट रहा है।


भारत के लिए यह नया आसन्न संकट है। अगर भारत ने अभी सतर्कता और दूरदर्शिता नहीं दिखाई, तो उसके चारों ओर अस्थिरता और शत्रुतापूर्ण ताक़तों का घेरा बन जाएगा।


समय की मांग है कि भारत अपने पड़ोस को केवल “भौगोलिक” नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सभ्यतागत परिधि माने और उसी अनुसार रणनीति बनाए।

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