क्या नेपाल हिन्दू राष्ट्र बनेगा या चीन, इस्लामी प्रभाव और क्रिश्चियन मिशनरियों की कठपुतली बन जाएगा – वर्तमान अशांति का विश्लेषण
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भूमिका
नेपाल, हिमालय की गोद में बसा छोटा-सा राष्ट्र, सदियों तक दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र रहा। यहां की पहचान सिर्फ भूगोल या राजनीति से नहीं, बल्कि संस्कृति और आस्था से जुड़ी रही। नेपाल के लोग अपने राजा को “श्रीपंच महाराजाधिराज” और “हिन्दू धर्मरक्षक” मानते थे। काठमांडू की घाटियों से लेकर जनकपुर, पोखरा और लुंबिनी तक हिन्दू संस्कृति की धारा बहती रही।
लेकिन 2006 की माओवादी क्रांति और 2008 में राजशाही की समाप्ति ने नेपाल की दिशा ही बदल दी। देश को धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित कर दिया गया। संविधान से हिन्दू राष्ट्र का दर्जा हट गया। तभी से नेपाल की राजनीति, समाज और संस्कृति लगातार अस्थिरता और टकराव में फंसती चली गई।
आज नेपाल एक पहचान संकट से गुजर रहा है। सवाल यह है कि क्या वह फिर से अपनी हिन्दू जड़ों की ओर लौटेगा, या चीन, मध्यपूर्वी इस्लामी प्रभाव और पश्चिमी क्रिश्चियन मिशनरियों के हाथों की कठपुतली बन जाएगा?
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नेपाल का आधुनिक राजनीतिक संक्रमण
1. राजशाही से गणतंत्र तक
सदियों तक नेपाल में शाह वंश का राज रहा।
1990 तक यह देश पूर्ण राजशाही था। बाद में जनदबाव के कारण संवैधानिक राजशाही बनी।
2001 में शाही महल हत्याकांड ने पूरे देश को हिला दिया। गद्दी राजा ज्ञानेन्द्र के हाथ आई, लेकिन उन पर जनता का भरोसा नहीं रहा।
2. माओवादी आंदोलन
1996 में शुरू हुआ माओवादी “जनयुद्ध” नेपाल के इतिहास का सबसे बड़ा विद्रोह था।
माओवादी नेता पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ और बाबूराम भट्टarai ने गरीबों और वंचितों को “नया लोकतंत्र” का सपना दिखाया।
10 साल तक चले इस आंदोलन में हजारों लोग मारे गए।
2006 में शांति समझौते के बाद माओवादी मुख्यधारा की राजनीति में आए।
3. धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की घोषणा
2008 में राजशाही समाप्त कर दी गई।
नेपाल को “फेडरल डेमोक्रेटिक रिपब्लिक” और “सेक्युलर स्टेट” घोषित किया गया।
संविधान से “हिन्दू राष्ट्र” शब्द हटा दिया गया।
यहीं से असली संकट शुरू हुआ—नेपाल अपनी सांस्कृतिक पहचान खो बैठा और विदेशी शक्तियों के लिए खुला मैदान बन गया।
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हिन्दू राष्ट्र की पुनः मांग
आज भी नेपाल की 80% से अधिक आबादी हिन्दू है।
गाँवों और कस्बों में जनता की भावना यह है कि नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए।
काठमांडू, पोखरा और तराई क्षेत्र में कई बार इस मांग को लेकर बड़े आंदोलन हुए।
2020 में नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र शाह जब जनकपुर गए तो हजारों लोगों ने “राजा आऊ, देश बचाऊ” और “हिन्दू राष्ट्र चाहिए” के नारे लगाए।
यह बताता है कि भले ही राजनीतिक दल “सेक्युलरिज़्म” का झंडा उठाए हों, लेकिन जनता की आत्मा आज भी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान से बंधी है।
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चीन की भूमिका
नेपाल की वर्तमान राजनीति में चीन सबसे बड़ा बाहरी खिलाड़ी बन चुका है।
1. रणनीतिक कारण
नेपाल भारत और चीन के बीच की भौगोलिक कड़ी है।
बीजिंग के लिए यह एक बफर ज़ोन और भारत पर दबाव डालने का औजार है।
2. आर्थिक दबाव
चीन ने नेपाल में सड़कों, बांधों, रेल परियोजनाओं और निवेश का जाल बिछाया है।
“बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” (BRI) के तहत नेपाल को कर्ज़ में फंसाने की रणनीति अपनाई गई।
3. राजनीतिक हस्तक्षेप
2019–21 के बीच चीन की राजदूत होउ यांकी ने नेपाल में खुलकर दलों के बीच मध्यस्थता की।
उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के गुटों को एकजुट करने में भूमिका निभाई।
यह पहली बार था जब किसी विदेशी राजदूत ने इतनी आक्रामक सक्रियता दिखाई।
4. सांस्कृतिक असर
नेपाल के वामपंथी दल चीन की वैचारिक प्रेरणा लेते हैं।
युवाओं पर चीनी छात्रवृत्तियों और प्रचार का असर बढ़ रहा है।
नतीजा यह है कि नेपाल की राजनीति बीजिंग की डोरियों पर नाचती दिखने लगी है।
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मध्यपूर्व और इस्लामी प्रभाव
नेपाल के लाखों मजदूर खाड़ी देशों और मलेशिया में काम करते हैं।
वे जब लौटते हैं तो अपने साथ वहां की सांस्कृतिक और धार्मिक छाप भी लाते हैं।
नेपाल में मस्जिदों और मदरसों की संख्या बढ़ रही है।
खाड़ी देशों से आने वाले धन ने कई धार्मिक संगठनों को मजबूत किया है।
चूंकि नेपाल का संविधान “सेक्युलर” है, इसलिए इन गतिविधियों पर रोक लगाना कठिन है।
धीरे-धीरे नेपाल के तराई क्षेत्र में इस्लामी पहचान उभरने लगी है।
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क्रिश्चियन मिशनरियों की गतिविधियाँ
नेपाल में 1990 के दशक से पश्चिमी चर्चों और मिशनरियों की सक्रियता तेज हुई।
शिक्षा, स्वास्थ्य और आपदा राहत के नाम पर वे ग्रामीण इलाकों में पहुँचे।
गरीब, दलित और पिछड़े वर्गों को आर्थिक मदद और स्कूल-हॉस्पिटल की सुविधा देकर धर्मांतरण कराया जाने लगा।
आधिकारिक आंकड़े भले कम हों, लेकिन अनुमान है कि पिछले 20 सालों में नेपाल की ईसाई आबादी कई गुना बढ़ी है।
यह परिवर्तन नेपाल की धार्मिक जनसांख्यिकी को धीरे-धीरे प्रभावित कर रहा है।
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नेपाल की आंतरिक अशांति
नेपाल की अशांति का असली कारण केवल विदेशी ताकतें नहीं हैं।
यहाँ की राजनीति अस्थिर है: हर साल सरकार बदल जाती है।
भ्रष्टाचार गहराई तक फैला है।
बेरोज़गारी इतनी है कि युवा विदेश पलायन कर रहे हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था बदहाल है।
युवा पीढ़ी को राजनीतिक दल सिर्फ नारों और मुफ्त योजनाओं से बहला रहे हैं।
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विदेशी शक्तियों की खींचतान बनाम हिन्दू राष्ट्र की संभावना
आज नेपाल एक चौराहे पर खड़ा है।
1. हिन्दू राष्ट्र की ओर वापसी – जनता का बड़ा हिस्सा इसे चाहता है।
2. चीन का प्रभाव – वामपंथी दल और आर्थिक दबाव से यह संभावना प्रबल है।
3. इस्लामी असर – खाड़ी देशों से पैसा और पहचान की राजनीति धीरे-धीरे पैर जमा रही है।
4. क्रिश्चियन मिशनरियाँ – समाज के कमजोर तबकों को अपनी ओर खींच रही हैं।
यह चारों शक्तियाँ नेपाल को अलग-अलग दिशा में खींच रही हैं।
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भारत के लिए निहितार्थ
नेपाल का भविष्य भारत की सुरक्षा और संस्कृति से गहराई से जुड़ा है।
अगर नेपाल हिन्दू राष्ट्र बनता है, तो भारत के साथ उसका सांस्कृतिक रिश्ता और मजबूत होगा।
अगर नेपाल चीन की कठपुतली बनता है, तो भारत की उत्तरी सीमा पर नया खतरा पैदा होगा।
अगर नेपाल में इस्लामी और क्रिश्चियन प्रभाव बढ़ा, तो भारत की सांस्कृतिक सुरक्षा पर असर होगा।
भारत के लिए यह केवल पड़ोसी देश का सवाल नहीं, बल्कि अपनी सभ्यता और सुरक्षा का भी प्रश्न है।
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निष्कर्ष
नेपाल आज जिस अशांति में है, उसका कारण है –
अपनी पहचान का खोना,
विदेशी शक्तियों की दखल,
और अस्थिर राजनीतिक नेतृत्व।
भविष्य तीन रास्तों में से किसी एक पर जा सकता है:
1. नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बने और अपनी सांस्कृतिक पहचान को पुनः पाए।
2. नेपाल पूरी तरह चीन के प्रभाव में जाकर उसका रणनीतिक औजार बन जाए।
3. या फिर धीरे-धीरे इस्लामी और क्रिश्चियन ताकतों के बीच फंसकर अपनी मौलिक आत्मा खो दे।
अगर नेपाल ने अपनी जड़ों की ओर वापसी नहीं की, तो वह सचमुच विदेशी ताकतों की कठपुतली बनकर रह जाएगा।
भारत और नेपाल दोनों के लिए यही समय है कि इस खतरे को समझें और अपनी साझा सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए ठोस कदम उठाएँ।
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