भारत का कार्यबल: उत्पादन की ताकत या पलायन की मजबूरी



"भारत का कार्यबल: उत्पादन की ताकत या पलायन की मजबूरी?



प्रस्तावना:


21वीं सदी के दूसरे दशक में भारत को "विश्व की कार्यशाला" (Factory of the World) बनने का सुनहरा अवसर प्राप्त था। विशाल युवा जनसंख्या, तकनीकी क्षमता, लोकतांत्रिक व्यवस्था, और सस्ता श्रम — इन सबको देखते हुए भारत को वैश्विक उत्पादन और आउटसोर्सिंग का प्रमुख केंद्र बनना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता इससे उलट है। आज भारत स्वयं एक उत्पादन इकाई के बजाय ‘मानव बल निर्यातक देश’ बनता जा रहा है।


जब हम कहते हैं कि भारत अपने ही श्रमिकों को विदेश भेजकर आर्थिक लाभ कमा रहा है, तो यह बात सुनने में आर्थिक रूप से लाभकारी प्रतीत होती है, लेकिन नैतिक, सामाजिक और रणनीतिक दृष्टि से यह एक अपमानजनक व्यवस्था बन चुकी है। यह लेख इसी व्यवस्था की तह में जाकर भारत, रूस, अमेरिका और वैश्विक सन्दर्भों में इसका विश्लेषण करता है।



---


1. भारत: एक कार्यबल निर्यातक बनता देश


1.1. जनसंख्या: वरदान या शोषण?


भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी युवा जनसंख्या है। अनुमानतः 2025 तक भारत के पास 15–64 आयु वर्ग के लगभग 90 करोड़ लोग होंगे। यह कार्यबल उत्पादन, नवाचार और सेवा क्षेत्र में दुनिया को नेतृत्व दे सकता था।


परंतु विडंबना यह है कि आज यही कार्यबल विदेशों के निर्माण स्थलों, खाड़ी देशों के खदानों और पश्चिमी देशों के रेस्टोरेंट्स में श्रमिक बनकर खप रहा है। भारत से हर वर्ष लाखों लोग खाड़ी, यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की ओर जा रहे हैं — काम की तलाश में, गरिमा के त्याग के साथ।



---


2. रूस का प्रस्ताव: रोजगार या धोखे की भूमिका?


2.1. रूस का हालिया रोजगार प्रस्ताव


रूस ने भारत, नेपाल, श्रीलंका जैसे देशों को हाल ही में औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिक भेजने का प्रस्ताव दिया है। यह प्रस्ताव ऐसे समय आया है जब रूस यूक्रेन युद्ध में जूझ रहा है और उसे घरेलू श्रमिकों की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है।


हालाँकि, यह प्रश्न यहाँ अत्यंत गंभीर है —

क्या यह प्रस्ताव वास्तव में नागरिक निर्माण और उत्पादन का है, या छिपे तौर पर सैन्य ज़रूरतों की पूर्ति का?


2.2. यूक्रेन युद्ध में नेपाली और भारतीयों का प्रयोग


2023–24 में यह स्पष्ट हुआ कि रूस ने कुछ भारतीय और नेपाली युवाओं को ‘काम’ के नाम पर बुलाकर सेना में भर्ती कर लिया, और उन्हें यूक्रेन युद्ध में मोर्चे पर उतार दिया गया। बाद में उनके मृत शरीर या वीडियो लौटे।


यह न केवल रूस की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह है, बल्कि भारत की विदेश नीति की नाकामी भी है कि कैसे हमारे नागरिकों को "आर्थिक आप्रवासी" से “भाड़े के सैनिक” बना दिया गया।



---


3. अमेरिका की नीति: अवसर या वर्गभेद?


3.1. H-1B वीजा और भारतीय कार्यबल


अमेरिका भारतीय इंजीनियरों, डॉक्टरों, शिक्षकों, और तकनीकी विशेषज्ञों का सबसे बड़ा गंतव्य है। लाखों भारतीय उच्च शिक्षा और नौकरियों के लिए अमेरिका जाते हैं। लेकिन इस आकर्षक दिखने वाले अमेरिकी सपने के पीछे एक बड़ा सामाजिक और नस्लीय शोषण भी छिपा है।


3.2. नस्लीय भेदभाव और सुरक्षा की अनिश्चितता


अमेरिका में भारतीयों को लगातार नस्लीय हमलों, गोलीबारी और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है।


प्रवासी नीति लगातार कठोर होती जा रही है — ग्रीन कार्ड की प्रतीक्षा सूची 10–15 वर्षों तक लंबी हो गई है।



अमेरिका भारतीयों को 'सस्ते दिमागों' की तरह उपयोग करता है —

जब तक जरूरत है तब तक रखो, फिर बाहर कर दो।



---


4. भारत की रणनीतिक विफलता


4.1. "मेक इन इंडिया" या "वर्क आउट इंडिया"?


2014 में शुरू हुई "मेक इन इंडिया" योजना का उद्देश्य था भारत को एक उत्पादन हब बनाना। लेकिन आज स्थिति यह है कि:


FDI के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में जॉब्स नहीं बढ़ीं।


IT और सर्विस सेक्टर में भी ऑटोमेशन और एआई के कारण रोजगार घटे।


भारत के शहर "कॉरपोरेट कंसल्टेंसी केंद्र" बनकर रह गए, उत्पादन केंद्र नहीं।



4.2. क्यों नहीं बन पा रहा भारत उत्पादन केंद्र?


बुनियादी ढांचे की कमी


स्किल डेवलपमेंट संस्थानों की अपर्याप्तता


राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीति-असंतुलन


निर्यात केंद्रों में नौकरशाही बाधाएँ


उद्योगों पर कर और श्रम कानूनों की जटिलता



इन कारणों से उद्योगपति वियतनाम, बांग्लादेश, इंडोनेशिया जैसे देशों की ओर झुकने लगे हैं।


5. क्या मानव संसाधन का निर्यात आत्मनिर्भरता है?


भारत सरकार इस पलायन को कभी "रेमिटेंस से बढ़ती अर्थव्यवस्था", तो कभी "ग्लोबलाइजेशन का भागीदार" कहकर उचित ठहराती है। लेकिन सच्चाई यह है कि:


देश का सबसे कुशल कार्यबल भारत में नहीं, बल्कि विदेशों में विकास कर रहा है।


जो मजदूर विदेश में जाते हैं, उनमें से 80% असंगठित, अनपढ़ या निम्न शिक्षित होते हैं।


विदेशों में उन्हें मानवाधिकार, वेतन और सुरक्षा की न्यूनतम गारंटी नहीं मिलती।



यह स्थिति बताती है कि भारत अपना ही खून-पसीना विदेशों को सस्ते में बेचकर अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ रहा है।



---


6. संभावित समाधान:


6.1. उत्पादन केंद्रों का विकेंद्रीकरण


बड़े शहरों के बजाय छोटे और मध्यम शहरों में औद्योगिक क्लस्टर बनाए जाएँ, ताकि स्थानीय युवाओं को वहीं रोजगार मिले।


6.2. कौशल प्रशिक्षण में सुधार


देशभर में आईटीआई, पॉलीटेक्निक, स्किल इंडिया जैसी संस्थाओं को अपग्रेड किया जाए ताकि युवा वैश्विक स्तर की तकनीकी दक्षता पा सकें।


6.3. रोजगार नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण


सरकार को हर प्रकार के विदेशी रोजगार प्रस्तावों की जांच करनी चाहिए — विशेषकर रूस जैसे देशों के साथ, ताकि कोई नागरिक सैन्य मोहरे के रूप में न इस्तेमाल हो।


6.4. रिवर्स माइग्रेशन योजना


जिन प्रवासियों ने विदेशों में तकनीक, व्यवसाय या ज्ञान अर्जित किया है, उन्हें भारत लौटाकर यहां स्टार्टअप, उद्योग या शिक्षा में लगाना चाहिए।



निष्कर्ष:


भारत की सबसे बड़ी पूंजी उसका जनबल और ज्ञानबल है। यदि इसी को हम विदेशों को बेचते रहेंगे, बिना सुरक्षा, गरिमा और भविष्य की गारंटी के, तो यह केवल आर्थिक भूल नहीं होगी — यह राष्ट्रीय आत्म-संवेदन का ह्रास होगा।


रूस हो या अमेरिका, खाड़ी देश हों या यूरोप — सब भारत से श्रम चाहते हैं, सम्मान नहीं।

समस्या रोजगार की नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण की है।


हमें तय करना होगा कि हम “कामगार निर्यातक भारत” बनना चाहते हैं या “उत्पादन नेतृत्वकर्ता भारत”?


टिप्पणियाँ