भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और संवेदना की दूरी दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। कई बार तो यह दूरी इतनी घुल-मिल जाती है कि यह पहचानना कठिन हो जाता है कि सरकार किसी मुद्दे पर प्रतिक्रिया दे रही है या किसी नए मुद्दे के सहारे पुराने घावों पर परदा डाल रही है। ऐसा ही कुछ देखने को मिला जब देश पहलगाम की त्रासदी में डूबा हुआ था और उसी समय केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना के मुद्दे को हवा दी — न सिर्फ हवा दी, बल्कि इसे राजनीतिक तुरुप के पत्ते की तरह प्रयोग किया।
क्या यह मात्र संयोग था या एक सुनियोजित रणनीति? क्या यह "सामाजिक न्याय" की ओर एक ईमानदार पहल थी या "सुरक्षा असफलता" से ध्यान हटाने का एक राजनीतिक प्रयास? आइए इन प्रश्नों के उत्तर एक-एक कर खोजते हैं।
पहलगाम: मातम, व्यथा और सरकार की विफलता
पहलगाम जम्मू-कश्मीर का एक प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटक स्थल है। अमरनाथ यात्रा का यह प्रमुख पड़ाव हर वर्ष लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। लेकिन वर्ष 2025 में यह स्थान श्रद्धा और पर्यटन का नहीं, बल्कि सुरक्षा की विफलता, आतंकी हमले और प्रशासनिक चूक का प्रतीक बन गया।
पहलगाम की इस घटना में कई निर्दोष यात्रियों की मौत हुई, सुरक्षा बल हताहत हुए और पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। मीडिया, सोशल मीडिया और जनमानस में एक ही स्वर गूंज रहा था — “सरकार जवाब दे”।
लेकिन सरकार की ओर से जो प्रतिक्रिया आई, वह चौंकाने वाली थी। संवेदना, मुआवज़ा और सुरक्षा समीक्षा के पारंपरिक बयानबाज़ी के साथ-साथ जातिगत जनगणना को लेकर बड़ी घोषणा कर दी गई।
जातिगत जनगणना की पृष्ठभूमि
जातिगत जनगणना भारत के सामाजिक न्याय विमर्श का एक पुराना और विवादित मुद्दा है। 1931 के बाद से अब तक भारत में कोई विस्तृत जाति आधारित गणना नहीं हुई है। SC/ST के आंकड़े तो मिलते हैं, लेकिन OBC और अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या केवल अनुमान पर आधारित रही है।
विपक्ष की प्रमुख पार्टियाँ — जैसे कांग्रेस, RJD, JDU, SP — इस मुद्दे को लंबे समय से उठाते रहे हैं। बिहार सरकार ने 2023 में राज्य स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण कर भी लिया। केंद्र की भाजपा सरकार पर लगातार दबाव था कि वह इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख अपनाए।
लेकिन केंद्र सरकार इस विषय पर अब तक टालमटोल करती रही थी। अचानक पहलगाम की त्रासदी के ठीक बाद जातिगत जनगणना पर सहमति और सक्रियता दिखाना, कई सवालों को जन्म देता है।
मोदी सरकार की रणनीति: तुरुप का पत्ता
-
विपक्ष से मुद्दा छीनना
जातिगत जनगणना विपक्ष का प्रमुख मुद्दा रहा है। इस पर भाजपा हमेशा असहज दिखी थी। लेकिन जब बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों ने राज्य स्तरीय जातिगत सर्वेक्षण कर लिया, तो यह साफ हो गया कि यह मुद्दा जनता के बीच असरदार है।
ऐसे में मोदी सरकार ने यह मुद्दा स्वयं उठा कर न सिर्फ विपक्ष को निष्क्रिय किया, बल्कि जनहित की पहरेदार दिखने का प्रयास भी किया। -
ओबीसी वोट बैंक को साधना
भाजपा की राजनीति परंपरागत रूप से ऊँची जातियों और शहरी मध्यम वर्ग के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है। लेकिन 2014 के बाद मोदी सरकार ने खुद को OBC नेता के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया।
जातिगत जनगणना की घोषणा करके मोदी सरकार ने स्पष्ट संकेत दिया कि वह पिछड़ी जातियों के हक और भागीदारी को लेकर गंभीर है। -
पहलगाम की विफलता से ध्यान हटाना
यही इस लेख का मूल प्रश्न है — क्या जातिगत जनगणना का मुद्दा पहलगाम की असफलता से जनता का ध्यान भटकाने के लिए उछाला गया?
इस बात के कई संकेत मिलते हैं:-
मीडिया की बहसें सुरक्षा चूक से हटकर सामाजिक न्याय पर आ गईं।
-
सोशल मीडिया पर "OBC को उनका हक दो" ट्रेंड करने लगा, जबकि पहलगाम की पीड़ा धीरे-धीरे विस्मृत हो गई।
-
विपक्ष भी बँट गया — कुछ पार्टियाँ सरकार की मंशा पर सवाल उठाने लगीं, जबकि कुछ इसे अपनी जीत मान बैठीं।
-
रणनीतिक आलोचना: नैतिकता बनाम राजनीति
मोदी सरकार की रणनीति को अगर राजनीतिक दृष्टि से देखें, तो यह अत्यंत चतुर चाल थी। लेकिन नैतिक दृष्टि से यह एक गंभीर प्रश्नचिन्ह प्रस्तुत करती है।
-
क्या सरकार राष्ट्रीय शोक की घड़ी में गंभीर समीक्षा के बजाय राजनीतिक लाभ की योजना बना रही थी?
-
क्या जनगणना जैसे संवेदनशील मुद्दे को इतने संकटपूर्ण समय में उठाना उचित था?
-
क्या सरकार की संवेदना केवल शब्दों तक सीमित थी और असल मकसद छवि बचाना था?
यदि इन प्रश्नों के उत्तर 'हाँ' में हैं, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चिंता का विषय है।
मीडिया प्रबंधन और विमर्श का बदलाव
जातिगत जनगणना की घोषणा के बाद जिस प्रकार मीडिया ने पहलगाम की त्रासदी को धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में डाल दिया, वह सरकार के विमर्श-प्रबंधन कौशल को दर्शाता है।
आज की राजनीति में केवल नीतियाँ नहीं, बल्कि नैरेटिव का नियंत्रण भी सत्ता का प्रमुख हथियार बन चुका है। भाजपा, विशेषतः नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, इस कौशल में निष्णात हो चुकी है। जातिगत जनगणना की टाइमिंग इसका क्लासिक उदाहरण है — कठिन प्रश्नों से भागो नहीं, बल्कि उन्हें नए विमर्श से ढँक दो।
सामाजिक न्याय या चुनावी जुगाड़?
जातिगत जनगणना की मांग यदि जनता से उठती है, तो उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर सरकार इसे केवल चुनावी लाभ के लिए अपनाती है, तो यह केवल जन आकांक्षाओं का राजनीतिक दोहन बन कर रह जाता है।
यदि मोदी सरकार इस घोषणा के बाद सशक्त रूप से:
-
प्रक्रिया स्पष्ट करती,
-
समय-सीमा तय करती,
-
रिपोर्ट सार्वजनिक करती,
तो यह विश्वास पैदा होता कि सरकार ईमानदारी से सामाजिक न्याय के पक्ष में है। लेकिन ऐसी कोई ठोस कार्ययोजना सामने नहीं आई, जिससे यह संदेह और गहरा होता गया कि यह घोषणा केवल चुनावी तात्कालिकता से प्रेरित थी।
तुरुप का पत्ता या पर्दा डालने का साधन?
मोदी सरकार ने पहलगाम की राष्ट्रीय पीड़ा के समय जातिगत जनगणना जैसा बड़ा मुद्दा उठाकर जो किया, वह भारतीय राजनीति का एक ज्वलंत उदाहरण है — कैसे एक असफलता को छुपाने के लिए एक नया, उग्र लेकिन लोकप्रिय मुद्दा उछाला जाता है।
यह राजनीतिक दृष्टि से एक तुरुप का पत्ता था — विपक्ष उलझ गया, मीडिया बहक गया, जनता भ्रमित हो गई।
लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टि से यह एक गंभीर चुनौती है — क्या सरकारें अब संकट के समय विवेक और जवाबदेही की जगह मुद्दे और नारों से शासन करेंगी?
अंतिम टिप्पणी:
"जब देश मातम में डूबा हो, तब सरकारों से संवेदना की उम्मीद की जाती है — न कि रणनीतिक शतरंज की।
लेकिन आज की सत्ता संवेदना नहीं, 'नैरेटिव' से चलती है। और जब सत्ता को संकट हो, तो जातियों की गिनती ही सबसे आसान ढाल बन जाती है।"
टिप्पणियाँ