नेपाल की अराजकता, चीन की भूमिका और भारत की नई पीढ़ी की चुनौतियाँ

 

प्रस्तावना


नेपाल आज दक्षिण एशिया के सबसे संवेदनशील देशों में गिना जाता है। हिमालय की गोद में बसा यह छोटा-सा राष्ट्र भूगोल, संस्कृति और राजनीति – तीनों दृष्टियों से भारत और चीन दोनों के लिए अहम है। भारत के साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रिश्ते; चीन के साथ भौगोलिक निकटता और सामरिक हित — इन दोनों शक्तियों ने नेपाल को हमेशा त्रिकोणीय राजनीति का अखाड़ा बनाए रखा है।


लेकिन पिछले दो दशकों में नेपाल एक गंभीर अस्थिरता और अराजकता के दौर से गुज़र रहा है। राजशाही के अंत के बाद लोकतंत्र की स्थापना तो हुई, लेकिन स्थायित्व और विकास की जगह सत्ता संघर्ष, भ्रष्टाचार, जातीय राजनीति और विदेशी हस्तक्षेप बढ़ता चला गया। इस पूरी प्रक्रिया में चीन की भूमिका विशेष रूप से विवादित रही है।


नेपाल की मौजूदा अशांति को समझना आज भारत के लिए भी अनिवार्य है, क्योंकि भारत की नई पीढ़ी भी एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी है। नेपाल की “Z-Generation” वैचारिक भ्रम और बेरोज़गारी के कारण विदेशी ताक़तों के प्रभाव में जा रही है, जबकि भारत की नई पीढ़ी मोबाइल और डिजिटल नशे में बंधकर अपनी दिशा खो रही है। यही वह बिंदु है जहाँ नेपाल और भारत के अनुभव हमें चेतावनी देते हैं कि लोकतंत्र केवल नारों और हवाओं पर नहीं टिकता।



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नेपाल संकट की पृष्ठभूमि


नेपाल की राजनीति में अस्थिरता कोई नई बात नहीं।


1990 के दशक में बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद से ही वहाँ सरकारें बार-बार बदलती रही हैं।


1996 से 2006 तक चला माओवादी जनयुद्ध (People’s War) देश को हिंसा, आतंक और अस्थिरता में झोंकता रहा।


2008 में राजशाही का अंत हुआ और लोकतांत्रिक गणराज्य बना, लेकिन इसके बाद भी जनता को स्थायित्व और विकास नहीं मिला।



आज स्थिति यह है कि—


1. राजनीतिक दल आपसी खींचतान और गुटबाज़ी में उलझे हैं।



2. जनता का भरोसा लोकतांत्रिक संस्थाओं पर टूट रहा है।



3. विदेशी हस्तक्षेप खुलेआम दिखाई देता है।





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चीन की भूमिका


(1) माओवादी आंदोलन को प्रश्रय


नेपाल के माओवादी आंदोलन को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तर पर चीन से प्रेरणा मिली। हालांकि बीजिंग ने कभी आधिकारिक रूप से माओवादी हिंसा का समर्थन नहीं किया, लेकिन वैचारिक तौर पर “चीनी क्रांति” हमेशा नेपाल के माओवादियों की प्रेरणा रही।


(2) राजनयिक हस्तक्षेप


2019 से 2021 के बीच चीन की राजदूत होउ यांकी (Hou Yanqi) नेपाल की राजनीति की सबसे सक्रिय हस्ती मानी जाने लगीं।


उन्होंने बार-बार प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली, प्रचंड, माधव नेपाल जैसे नेताओं से मुलाक़ात की।


उनका मुख्य उद्देश्य था कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) एकजुट रहे और चीन की “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI)” परियोजनाएँ सुरक्षित रहें।


लेकिन इसके बावजूद 2021 में NCP टूट गई और चीन की कोशिश असफल रही।



(3) आर्थिक दबदबा


चीन ने नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश किया — सड़कें, बांध, ऊर्जा, संचार और व्यापार।


नेपाल का व्यापार धीरे-धीरे चीन पर निर्भर होने लगा, खासकर जब भारत के साथ सीमा विवाद हुआ।


कोरोना महामारी के दौरान चीन ने मेडिकल सप्लाई और वैक्सीन डिप्लोमेसी का भी इस्तेमाल किया।



(4) सामरिक रणनीति


नेपाल चीन के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ से भारत पर दबाव बनाया जा सकता है। चीन नेपाल को अपनी स्ट्रैटेजिक बफर ज़ोन मानता है। भारत-नेपाल विवाद (जैसे कालापानी और लिपुलेख) में चीन ने नेपाल को परोक्ष समर्थन दिया।



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माओवादी लोकतंत्र की असफलता


माओवादियों ने जनता को “नया लोकतंत्र” और “समानता” का सपना दिखाया था।


सत्ता में आने के बाद वही नेता भ्रष्टाचार, सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में उलझ गए।


गुटबाज़ी इतनी बढ़ी कि एकजुट कम्युनिस्ट पार्टी भी टूट गई।


जनता के सामने न शिक्षा सुधरी, न रोज़गार, न विकास।



नतीजा यह हुआ कि माओवादी लोकतंत्र धीरे-धीरे विश्वसनीयता खो बैठा। यह असफलता न केवल नेपाल के लिए, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए चेतावनी है कि केवल वैचारिक नारे लोकतंत्र की नींव नहीं बन सकते।



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नेपाल की Z-Generation


आज नेपाल की नई पीढ़ी एक गंभीर संकट में है।


1. बेरोज़गारी और पलायन – हर साल लाखों नेपाली युवा खाड़ी देशों, मलेशिया, यूरोप और अमेरिका की ओर पलायन करते हैं।



2. राजनीति से मोहभंग – उन्हें लगता है कि चाहे कोई भी दल सत्ता में आए, भ्रष्टाचार और अस्थिरता खत्म नहीं होती।



3. सोशल मीडिया प्रभाव – फेसबुक, टिकटॉक, इंस्टाग्राम पर यह पीढ़ी बेहद सक्रिय है। राजनीतिक नारों और विदेशी ट्रेंड से आसानी से प्रभावित होती है।



4. पहचान का संकट – राजशाही, माओवादी क्रांति और लोकतंत्र — तीनों दौर झेलने के बाद युवाओं के सामने कोई ठोस राष्ट्रीय दृष्टि नहीं है।




यही कारण है कि नेपाल की Z-Generation आज भ्रम, असंतोष और पलायन के बीच झूल रही है।



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भारत की मोबाइल-आसक्त नई पीढ़ी


भारत की स्थिति नेपाल से अलग है, लेकिन खतरे के संकेत यहाँ भी मौजूद हैं।


भारत में अवसर और संसाधन कहीं ज़्यादा हैं, लेकिन मोबाइल और डिजिटल नशा नई पीढ़ी की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है।


रोज़ाना कई घंटे सोशल मीडिया स्क्रॉलिंग, गेमिंग और रील्स में खर्च हो रहे हैं।


पढ़ाई, कैरियर, सामाजिक जुड़ाव और वास्तविक जीवन के कौशल पीछे छूट रहे हैं।


राजनीतिक रूप से यह पीढ़ी सतही नारों और सोशल मीडिया कैंपेन से आसानी से प्रभावित होती है।



नेपाल की Z-Generation विदेशी हवाओं में बह रही है, तो भारत की Generation मोबाइल स्क्रीन में कैद होकर अपनी दिशा खो रही है।



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तुलनात्मक विश्लेषण


पहलू नेपाल की Z-Generation भारत की नई पीढ़ी


मुख्य समस्या बेरोज़गारी, पलायन, राजनीतिक मोहभंग मोबाइल-आसक्ति, डिजिटल नशा

प्रभाव विदेशी हस्तक्षेप और वैचारिक भ्रम सतही राजनीति और ध्यान का भटकाव

भविष्य की चुनौती स्थिर लोकतंत्र और पहचान संकट उत्पादकता और नागरिक जिम्मेदारी का संकट

समानता दोनों ही पीढ़ियाँ आसानी से नारों और बाहरी प्रभाव से प्रभावित लोकतंत्र की मज़बूती दोनों जगह कमजोर होती जा रही है




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राहुल गांधी और अखिलेश यादव की राजनीति: एक खतरनाक दिशा


नेपाल में माओवादी नेताओं ने नारों और भावनाओं से जनता को जोड़ा, लेकिन ठोस नीतियाँ न देने के कारण वे असफल हुए।


भारत में राहुल गांधी और अखिलेश यादव जैसे नेता भी कुछ वैसा ही करते दिखते हैं:


वे नीतिगत स्पष्टता और ठोस विकास एजेंडा देने की बजाय भावनात्मक और तात्कालिक मुद्दों पर राजनीति करते हैं।


वे “युवा असंतोष” और “जातीय समीकरण” को हवा देकर समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं।


उनकी राजनीति ज़्यादातर हवा और नारे पर आधारित है, न कि स्थायी संस्थाओं या ठोस दृष्टि पर।



अगर भारत की नई पीढ़ी ऐसी राजनीति में बह गई, तो लोकतंत्र अस्थिरता और अराजकता की ओर बढ़ सकता है — ठीक वैसे ही जैसे नेपाल में हुआ।



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निष्कर्ष


नेपाल की मौजूदा अराजकता हमें कई सबक देती है:


1. लोकतंत्र केवल नारों और विचारधारा के सहारे नहीं टिक सकता, उसे स्थिर संस्थाओं और ठोस नीतियों की ज़रूरत होती है।



2. जब आंतरिक अस्थिरता चरम पर पहुँचती है, तो विदेशी हस्तक्षेप खुलेआम होने लगता है।



3. नई पीढ़ी अगर दिशाहीन हुई तो वह लोकतंत्र को कमजोर करने का सबसे आसान साधन बन जाती है।




भारत को नेपाल से यह सीख लेनी चाहिए कि—


नई पीढ़ी को केवल मोबाइल स्क्रीन और भावनात्मक नारों में उलझाकर नहीं छोड़ा जा सकता।


नेतृत्व को दूरदर्शी, ठोस और सकारात्मक रास्ता देना होगा।


वरना, राहुल–अखिलेश जैसी हवा आधारित राजनीति भारत को उसी खतरनाक दिशा में ले जाएगी, जिस आग में आज नेपाल जल रहा है।


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