बराक के दौर में भारत इज़राइल बनने चला था, ईरान बनकर लौटा


भूमिका

कूटनीतिक रिश्तों की कहानी अक्सर उम्मीदों से शुरू होती है और सच्चाई पर खत्म होती है। बराक ओबामा के दौर में भारत–अमेरिका संबंधों ने जिस रफ़्तार से उड़ान भरी, वह ऐसा लगा मानो भारत इज़राइल की तरह अमेरिका का भरोसेमंद सुरक्षा सहयोगी बन जाएगा। लेकिन घटनाओं की श्रृंखला, बदलती प्राथमिकताएँ और रणनीतिक टकरावों ने भारत को उस पथ से खींचकर एक ऐसी स्थिति में ला दिया, जो किसी हद तक ईरान की याद दिलाती है—साझेदार भी, लेकिन शक़ और शर्तों के घेरे में।


1. इज़राइल बनने का सपना: ओबामा युग की गर्मजोशी

बराक ओबामा (2009–2017) के दौर में भारत के लिए माहौल बेहद अनुकूल था:

  • सैन्य और तकनीकी सहयोग: अमेरिका ने भारत को उन्नत रक्षा तकनीक उपलब्ध कराने के संकेत दिए, जैसे P-8I समुद्री गश्ती विमान और C-17 Globemaster।

  • न्यूक्लियर डील का क्रियान्वयन: 2008 की सिविल न्यूक्लियर डील ओबामा के समय वास्तविक सहयोग में बदली।

  • दहशतगर्दी के खिलाफ साझेदारी: 26/11 के बाद भारत–अमेरिका खुफिया सहयोग बढ़ा, जो इज़राइल–अमेरिका मॉडल से मेल खाता था।

  • भारत की Indo-Pacific में भूमिका: अमेरिका ने भारत को "नेट सिक्योरिटी प्रोवाइडर" के रूप में देखना शुरू किया।

यह वह समय था जब भारत खुद को पश्चिमी सुरक्षा संरचना में "Trusted Ally" के रूप में स्थापित करने की ओर बढ़ रहा था—जैसे इज़राइल।


2. ईरान जैसा अनुभव: भरोसा घटा, शर्तें बढ़ीं

बराक ओबामा के बाद (2017 के बाद), समीकरण बदले:

a. ट्रंप 1.0 (2017–2021)

  • GSP से बाहर: भारत को दिए जाने वाले सामान्य शुल्क लाभ समाप्त।

  • H1B वीज़ा कड़ा: भारतीय IT उद्योग को बड़ा झटका।

  • ट्रेड वॉर की झलक: स्टील और एल्यूमिनियम पर टैरिफ।

b. बाइडेन (2021–2025)

  • चीन को रोकने के लिए भारत को “क्वाड” में अहमियत दी, लेकिन तकनीकी ट्रांसफर में हिचक।

  • रूस से तेल खरीद पर लगातार दबाव—ठीक वैसे जैसे अमेरिका ईरान पर करता आया है।

c. ट्रंप 2.0 (2025–)

  • 50% टैरिफ (अप्रैल–अगस्त 2025) – बासमती, ज्वेलरी, इंजीनियरिंग गुड्स जैसे क्षेत्रों को सीधा नुकसान।

  • भारत को चेतावनी: रूस से रक्षा या ऊर्जा सौदों पर पाबंदियाँ लग सकती हैं (CAATSA जैसे कानून का हवाला)।

इन परिस्थितियों में भारत का स्थान एक “विशेष सहयोगी” से घटकर “रणनीतिक रूप से ज़रूरी लेकिन पूरी तरह भरोसेमंद नहीं” साझेदार जैसा हो गया—ठीक वैसे जैसे ईरान को कभी अमेरिका ने क्षेत्रीय सुरक्षा समीकरण में देखा, फिर उस पर संदेह और आर्थिक दबाव बढ़ाया।


3. रूपक का अर्थ: इज़राइल बनना बनाम ईरान बनना

पहलूइज़राइल मॉडलईरान जैसा अनुभव
सैन्य सहयोगबिना शर्त उच्च तकनीक ट्रांसफरचयनात्मक, शर्तों के साथ
आर्थिक पहुँचअमेरिकी बाज़ार में स्थिर लाभटैरिफ और पाबंदियाँ
राजनीतिक विश्वासबराबरी का सामरिक साझेदार‘Compliance’ की अपेक्षा
रणनीतिक स्वतंत्रतासीमित दायरे में स्वायत्ततास्वायत्तता पर संदेह

4. असल सबक

  1. अमेरिकी साझेदारी हमेशा “Transactional” होती है—भावनाओं से नहीं, हितों से तय।

  2. भारत की “Strategic Autonomy” ही सबसे बड़ा रक्षा कवच है—चाहे रूस हो, अफ्रीका या ASEAN।

  3. ग्लोबल साउथ नेटवर्क मज़बूत करना—ताकि अमेरिका या चीन किसी एक पर निर्भरता न बढ़े।


5. निष्कर्ष

बराक ओबामा के दौर में भारत–अमेरिका संबंधों में जो उत्साह था, वह यह आभास देता था कि भारत इज़राइल जैसी “First Tier Ally” बन सकता है। लेकिन समय के साथ बदलते नेतृत्व, बदलती भू-राजनीति और अमेरिकी नीति के नस्लीय–रणनीतिक पूर्वाग्रहों ने भारत को ईरान जैसे अनुभव की ओर धकेला—जहाँ भरोसा और दबाव, दोनों साथ चलते हैं।

यह रूपक हमें याद दिलाता है कि किसी भी बड़ी शक्ति के साथ संबंधों में बराबरी और सम्मान तभी टिकते हैं, जब हमारी रणनीतिक स्वतंत्रता और बहु-ध्रुवीय दृष्टिकोण अक्षुण्ण रहें।

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