ग्लोबल साउथ का मुद्दा चीन ने हड़प लिया, भारत साइडलाइन होकर विश्व राजनीति में अपनी औक़ात गिरा बैठा




विश्व राजनीति में ग्लोबल साउथ (Global South) आज सबसे चर्चित अवधारणा है। यह शब्द उन देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो विकासशील, उभरती अर्थव्यवस्थाएँ और अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका में स्थित हैं।
भारत ने लंबे समय तक खुद को इन देशों की आवाज़ बताने की कोशिश की। लेकिन हालिया घटनाओं ने यह दिखा दिया कि चीन ने बड़ी चालाकी से यह मुद्दा भारत से हड़प लिया है और भारत को विश्व राजनीति में एक “छुटभैया” देश की तरह साइडलाइन कर दिया गया है। अमेरिका के दबाव और चीन के आगे झुकाव ने भारत की छवि को और कमजोर किया है।


1. ग्लोबल साउथ की अवधारणा और भारत की भूमिका

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के दौर से ही भारत ने विकासशील देशों की आवाज़ बनने का दावा किया।

आजादी के बाद से ही भारत ने तीसरी दुनिया (Third World) और उपेक्षित देशों की ओर से बोलने की आदत डाली।

2023 के G20 शिखर सम्मेलन के समय भारत ने ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन आयोजित कर दुनिया को संदेश दिया कि भारत विकासशील देशों का नेतृत्व करने के लिए तैयार है।


लेकिन यही महत्वाकांक्षा भारत के लिए चुनौती बन गई।


2. चीन की चालाकी: ग्लोबल साउथ का हड़पना

चीन ने भारत की इस पहल को सीधे-सीधे चुनौती दी।

आर्थिक ताक़त: अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया में चीन ने अरबों डॉलर का निवेश किया। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत सड़कों, बंदरगाहों, रेल परियोजनाओं का जाल बिछाकर उसने देशों को अपने साथ जोड़ा।

राजनीतिक नेटवर्क: BRICS और SCO जैसे मंचों पर चीन ने खुद को विकासशील देशों के लिए मुख्य प्रवक्ता के रूप में पेश किया।

ऋण-जाल (Debt Trap): श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और अफ्रीकी देशों को चीन ने ऋण देकर अपने प्रभाव में लिया। इससे इन देशों ने भारत से ज्यादा चीन की ओर झुकाव दिखाया।

संयुक्त राष्ट्र में दबदबा: विकासशील देशों के मुद्दों पर चीन ने संयुक्त राष्ट्र में अक्सर खुद को बड़ा नेता बनाकर प्रस्तुत किया।


इस रणनीति से चीन ने भारत की ग्लोबल साउथ पहल को ध्वस्त कर दिया।


3. भारत का साइडलाइन होना: छुटभैया देश की छवि

भारत कई मंचों पर बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन व्यवहारिक राजनीति में वह अमेरिका और पश्चिम की छत्रछाया में नजर आता है।

BRICS में स्थिति: भारत वहां चीन और रूस की छाया में रहता है। BRICS विस्तार की प्रक्रिया में भी चीन ने अफ्रीकी देशों को आगे रखकर भारत को पीछे छोड़ दिया।

SCO में हाशिये पर: शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में भारत महज़ सदस्य की भूमिका निभाता है, नेतृत्व की नहीं।

G20 में असमंजस: G20 की अध्यक्षता भारत के पास थी, लेकिन ग्लोबल साउथ का संदेश अमेरिका और यूरोप की रणनीति में खो गया।

पड़ोसी देशों से दूरी: नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे छोटे देश भी आज चीन की ओर ज्यादा झुके हैं।


इन सब कारणों से भारत का कद “छुटभैया” देश जैसा दिखाया जाने लगा।


4. अमेरिका का दबाव: स्वतंत्र आवाज़ खोता भारत

भारत खुद को रणनीतिक रूप से स्वतंत्र बताता है, लेकिन वास्तविकता में वह अमेरिका के दबाव से बच नहीं पाता।

रक्षा सौदे: अमेरिका भारत को हथियार और तकनीक का वादा करता है, बदले में रूस से दूरी बनाने का दबाव डालता है।

व्यापार नीतियाँ: अमेरिका भारतीय आईटी, दवा उद्योग और कृषि निर्यात पर रोक-टोक लगाकर भारत से समझौते करवाता है।

वैश्विक मंच: रूस-यूक्रेन युद्ध, इज़राइल-फ़लस्तीन संकट, या ईरान के मुद्दे पर अमेरिका चाहता है कि भारत उसकी लाइन पर खड़ा हो।


भारत अगर तटस्थ भी रहता है तो यह अमेरिका को खटकता है और भारत पर उसका दबाव और बढ़ जाता है।


5. चीन के आगे झुकाव: सीमा से व्यापार तक

भारत चीन के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है।

व्यापार असंतुलन: भारत-चीन व्यापार में असंतुलन बहुत बड़ा है। भारत चीनी आयात पर निर्भर है, जबकि चीन भारतीय उत्पादों को सीमित करता है।

सीमा विवाद: गलवान झड़प और लद्दाख में तनाव के बावजूद भारत ने चीन से पूरी तरह संबंध नहीं तोड़े।

पड़ोस में प्रभाव: चीन भारत के पड़ोस में लगातार घुसपैठ कर रहा है, लेकिन भारत कई बार मजबूरी में चुप रहता है।


यह सब दिखाता है कि भारत कूटनीति में चीन के आगे झुकने की छवि बना बैठा है।


6. भारत की गिरती औक़ात

इन तमाम कारणों से विश्व राजनीति में भारत की छवि “ग्लोबल लीडर” की जगह “रीजनल पावर” तक सीमित होती जा रही है।

अफ्रीका और एशिया के देश चीन के करीब हैं।

अमेरिका भारत को सिर्फ अपने हितों के लिए इस्तेमाल करता है।

रूस अवसरवादी दोस्ती निभाता है।

ग्लोबल साउथ की अवधारणा अब भारत के हाथ से निकलकर चीन के पास जा रही है।


यह स्थिति भारत की कूटनीतिक असफलता और कमजोर रणनीति को उजागर करती है।

7. भारत के लिए आगे की राह

हालांकि हालात कठिन हैं, लेकिन भारत के पास विकल्प अब भी हैं।

1. स्वतंत्र विदेश नीति: भारत को अमेरिका और चीन दोनों के दबाव से हटकर अपनी स्वतंत्र लाइन पर चलना चाहिए।


2. पड़ोसियों से वास्तविक साझेदारी: केवल भाषण नहीं, बल्कि निवेश और विकास परियोजनाएँ देकर पड़ोसियों को साथ जोड़ना।


3. ग्लोबल साउथ के लिए ठोस एजेंडा: सिर्फ सम्मेलन करने के बजाय ठोस नीतियाँ—कृषि, ऊर्जा, ऋण-माफी, तकनीकी सहयोग।


4. आर्थिक आत्मनिर्भरता: चीनी आयात पर निर्भरता कम करके घरेलू उद्योगों को मजबूत करना।


5. नई साझेदारियाँ: अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के देशों में निवेश और टेक्नोलॉजी साझेदारी बढ़ाना।


निष्कर्ष

ग्लोबल साउथ का मुद्दा भारत के लिए बड़ा अवसर था, लेकिन चीन ने चालाकी से इसे हड़प लिया। अमेरिका के दबाव और चीन के सामने मजबूरी ने भारत को विश्व राजनीति में कमजोर और साइडलाइन कर दिया।

अब समय है कि भारत छुटभैया देश की छवि से बाहर निकले और खुद को एक स्वतंत्र, निर्णायक और ठोस नेतृत्वकर्ता के रूप में पेश करे। तभी वह चीन की चालाकी और अमेरिका की दबाव-नीति को मात देकर विश्व राजनीति में अपनी वास्तविक औक़ात वापस पा सकेगा।

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