अमेरिका: मूर्ख व्यापारी और धूर्त साझीदार — भारत पर टैरिफ के संदर्भ में

 

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में रिश्ते हमेशा भावनाओं से नहीं, बल्कि हितों से तय होते हैं। फिर भी कुछ रिश्तों में इतिहास, संस्कृति और भविष्य की रणनीति का इतना गहरा मेल होता है कि अपेक्षा की जाती है कि उनमें व्यावसायिक लालच और एकतरफ़ा लाभ-हानि का संतुलन थोड़ा ज़्यादा न्यायपूर्ण होगा। भारत और अमेरिका का रिश्ता इसी श्रेणी में आता है — या कम-से-कम आना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता यह है कि वाशिंगटन का रवैया अक्सर एक ऐसे व्यापारी का होता है जो दूरगामी रणनीतिक लाभ की बजाय तात्कालिक मुनाफे पर नज़र रखता है, और साझेदारी की आड़ में ऐसे नियम लागू करता है जो एकतरफ़ा लाभ की गारंटी दें। इसीलिए भारत के दृष्टिकोण से अमेरिका कई बार “मूर्ख व्यापारी” और “धूर्त साझीदार” दोनों भूमिकाएँ निभाता दिखता है।



यदि हम 1970 के दशक से शुरुआत करें, तो अमेरिका का भारत के प्रति आर्थिक व्यवहार कभी भी पूरी तरह स्थिर या संतुलित नहीं रहा। 1974 में भारत द्वारा पहला nuclear test करने के बाद अमेरिका ने nuclear fuel और technology पर कड़े restrictions लगाए। उस समय यह केवल सुरक्षा चिंता का मामला नहीं था, बल्कि यह भी स्पष्ट था कि technology denial regimes भारत की औद्योगिक और defence capacity को लंबे समय तक सीमित करने का माध्यम बन रहे थे। यह प्रवृत्ति 1998 के Pokhran-II tests के बाद और भी साफ़ दिखी, जब अमेरिका ने economic sanctions लगा दिए, जिससे high-technology imports रुक गए और अंतरराष्ट्रीय financial institutions में भारत के लिए ऋण की शर्तें कठिन बना दी गईं। यह वही अमेरिका था जो एक ओर free trade और globalisation का उपदेश दे रहा था, और दूसरी ओर भारत जैसे संभावित strategic partner को technology और capital access से वंचित कर रहा था।

1991 के बाद की economic liberalisation ने अमेरिका के लिए भारतीय बाज़ार के दरवाज़े खोल दिए। Information Technology, BPO, और pharmaceutical exports ने दोनों देशों के बीच trade को तेज़ी से बढ़ाया। लेकिन यहाँ भी अमेरिका का रवैया अक्सर protectionist और selective liberalisation वाला रहा। 1975 से 2019 तक भारत को Generalized System of Preferences (GSP) के तहत tariff-free access मिलता रहा, जो MSME सेक्टर और agriculture-based exports के लिए महत्वपूर्ण था। 2019 में अमेरिका ने अचानक GSP status वापस ले लिया, यह कहते हुए कि भारत “market access” में पर्याप्त रियायत नहीं दे रहा। इसका असर सीधे 5.6 बिलियन डॉलर के भारतीय exports पर पड़ा, और हजारों छोटे उद्योगों को अमेरिकी बाज़ार में competitiveness खोनी पड़ी।

टैरिफ के मोर्चे पर अमेरिका का व्यवहार और भी विरोधाभासी है। 2018 में Trump administration ने steel और aluminium imports पर क्रमशः 25% और 10% tariff लगाए, जिसमें भारत भी शामिल था। यह एक blanket measure था, जिसका औचित्य “national security” बताया गया, मानो भारतीय इस्पात अमेरिका की सुरक्षा के लिए खतरा हो। 2025 तक भी कई categories में भारतीय goods पर tariffs औसतन 40–50% तक बने हुए हैं, जिनमें textiles, gems & jewellery, leather products और certain pharma categories शामिल हैं। WTO में अमेरिका ने बार-बार यह तर्क दिया कि ये tariffs fair trade के दायरे में आते हैं, जबकि वही अमेरिका चीन के खिलाफ tariffs को strategic competition का हथियार मानता है और भारत से Indo-Pacific में चीन को counter करने की अपेक्षा रखता है।

यही वह बिंदु है जहाँ अमेरिका का “मूर्ख व्यापारी” वाला पक्ष उभर कर आता है। एक तरफ़ वह Indo-Pacific में भारत को सबसे महत्वपूर्ण democratic ally बताता है, QUAD में उसे साथ लाता है, defence cooperation agreements (LEMOA, COMCASA, BECA) पर हस्ताक्षर करता है, और China के खिलाफ supply chain resilience की बातें करता है। दूसरी तरफ़ वह भारत को trade में वैसा ही treat करता है जैसा किसी प्रतियोगी को किया जाता है — उच्च tariffs, IP disputes, agriculture subsidy cases, और pharma patent pressures के साथ। यह अल्पकालिक protectionism न केवल भारतीय exporters को चोट पहुँचाता है, बल्कि अमेरिकी manufacturers को भी सस्ते और diversified imports से वंचित करता है, जिससे long-term में Indo-US strategic synergy कमजोर होती है।

लेकिन केवल “मूर्ख व्यापारी” कहना अधूरा होगा, क्योंकि अमेरिका कई बार “धूर्त साझीदार” भी बन जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण defence deals हैं। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका ने भारत को P-8I reconnaissance aircrafts, Apache और Chinook helicopters, M777 howitzers, और हाल ही में MQ-9B drones बेचे हैं। लेकिन इन deals में अक्सर limited technology transfer clauses होते हैं, जिससे भारत manufacturing capability या indigenous R&D base को पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं कर पाता। F-414 jet engine deal में भी critical technologies पर export control बनाए रखा गया है, ताकि dependency बनी रहे। यह एक प्रकार का strategic lock-in है — सहयोग के नाम पर asymmetrical लाभ।

अमेरिका की negotiating strategy भी इसी धूर्तता को दर्शाती है। वह trade talks में agriculture market access, dairy imports, e-commerce data localisation और medical device pricing जैसी domestic policy issues पर दबाव बनाता है, और इन्हें defence या strategic cooperation से जोड़ देता है। यह linkage approach उसे leverage देता है, लेकिन partnership को transactional बना देता है। भारत जब Russia से discounted crude खरीदता है, तो अमेरिका इसे open strategic defiance के रूप में देखता है और परोक्ष रूप से trade concessions में सख़्ती कर देता है।

फिर भी, अमेरिकी नीति निर्माताओं में यह समझ नहीं है — या समझ कर भी अनदेखी की जाती है — कि यह दोहरा रवैया दीर्घकालिक strategic alignment को कमजोर करता है। यदि भारत को हर मोर्चे पर pressure partner की तरह ट्रीट किया जाएगा, तो वह हमेशा रूस, Middle East और यहां तक कि Europe में भी alternatives तलाशता रहेगा। 2024–25 में India-Middle East-Europe Corridor (IMEC) और Rupee-Dirham oil trade इसके शुरुआती संकेत हैं। यह diversification अमेरिका के influence को dilute करता है, और वही self-goal बनता है जिसे “मूर्ख व्यापारी” की श्रेणी में रखा जा सकता है।

2025 के geopolitical context में अमेरिका के पास भारत के साथ अपने व्यवहार को बदलने का अवसर अब भी है। वह tariffs को reduce कर सकता है, GSP जैसी preferential schemes बहाल कर सकता है, और defence deals में genuine technology transfer कर सकता है। लेकिन यदि वह protectionist tariffs और asymmetric deals के रास्ते पर चलता रहा, तो वह न केवल भारतीय trust खोएगा, बल्कि Indo-Pacific में अपने ही strategic calculations को कमजोर करेगा।

भारत के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह केवल reactive न रहे। Tariff barriers के खिलाफ WTO में assertive cases लड़े, alternative markets और FTAs (जैसे EU, UAE, Australia) को प्राथमिकता दे, और US deals में deep localisation व tech transfer की शर्तें रखे। Strategic autonomy का मतलब यही है कि साझेदारी mutual respect और balanced benefits पर आधारित हो, न कि fear of losing favour पर।

अमेरिका चाहे मूर्ख व्यापारी की तरह short-term profit पर नज़र रखे या धूर्त साझीदार की तरह strategic leverage का इस्तेमाल करे — भारत को यह मानकर चलना होगा कि partnership तभी टिकाऊ होगी जब वह बराबरी के आधार पर खड़ी हो। अन्यथा इतिहास गवाह है कि unequal alliances हमेशा कमजोर कड़ी से टूटते हैं, और भारत इस बार वह कमजोर कड़ी बनने को तैयार नहीं होगा।

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