अमेरिका की भारत-नीति पर एक पुरानी कहावत फिट बैठती है — “हाथ में मिठाई, जेब में पत्थर।” व्यापार के नाम पर दोस्ती, और दोस्ती के नाम पर शर्तें। बीते पाँच दशकों में अमेरिका का बर्ताव अक्सर किसी ऐसे व्यापारी जैसा रहा है जो मोलभाव में तो निपुण हो, लेकिन साझेदारी में धूर्त। भारत के साथ संबंधों में वह Strategic Partnership का झंडा लहराता है, और पीछे से टैरिफ, प्रतिबंध और Trade Disputes का पहाड़ खड़ा कर देता है। यही कारण है कि भारत में अमेरिका को लेकर आज भी भरोसा और अविश्वास का अजीब मिश्रण है।
इतिहास की परछाइयाँ: 1974 से 2025 तक
1974 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर Technology Denial और Dual-Use Export Controls लगाए। यह शुरुआत थी एक ऐसे संबंध की जिसमें रणनीतिक शक, आर्थिक अविश्वास और राजनीतिक स्वार्थ तीनों मौजूद थे।
1991 में जब भारत ने आर्थिक उदारीकरण किया, तो अमेरिका ने “बाज़ार” को देखा, लेकिन “मित्र” को नहीं।
1998 में पोखरण-II के बाद Clinton प्रशासन ने कड़े प्रतिबंध लगाए। 2005 का Civil Nuclear Deal एक मोड़ था, लेकिन यहाँ भी Technology Transfer और Liability Clauses ने भारत की Strategic Autonomy पर सवाल खड़े किए।
2025 में आकर तस्वीर यह है कि रक्षा सहयोग बढ़ा है, QUAD और Indo-Pacific पर तालमेल है, लेकिन Trade Tariffs और Compliance Pressure अब भी जस के तस हैं।
चीन के जाल में भारत और अमेरिकी “सहानुभूति”
अमेरिका को चीन से डर है, लेकिन भारत से मोह केवल तब तक है जब तक वह चीन को घेरने का औज़ार बन सकता है। Indo-Pacific Strategy और QUAD का narrative सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि Washington DC में कई रणनीतिकार भारत को केवल “Frontline Balancer” मानते हैं।
जब भारत और चीन के बीच Galwan जैसी झड़प होती है, तो अमेरिका सहानुभूति जताता है — पर असली मदद? या तो Military Sales की पेशकश या फिर Intelligence Sharing में सीमित सहयोग। इस “सहानुभूति” के पीछे असली मक़सद चीन को व्यस्त रखना और भारत को अमेरिकी Defence Supply Chain में बाँध देना है।
ट्रम्प युग: क्रूरता, नस्लवाद और व्यापारिक बदतमीज़ी
Donald Trump का कार्यकाल भारत-अमेरिका संबंधों के आर्थिक पहलू में एक झटका था। उन्होंने भारत को “Tariff King” कहकर WTO में घसीटा, Generalized System of Preferences (GSP) से बाहर कर दिया, और Steel-Aluminium पर भारी Tariffs लगा दिए।
Trump की राजनीति Transactional थी — “Pay Up or Get Out”। और नस्लवाद? यह केवल domestic politics में नहीं, foreign policy की भाषा में भी झलकता था। Developing Nations को “cheaters” कहना और Alliances को “rent” पर चलाना इसी सोच का हिस्सा था।
बाइडेन की नरमी या नई चालाकी?
Joe Biden प्रशासन ने भाषा को मुलायम किया, Climate Change और Technology Cooperation की बातें कीं, लेकिन Tariffs हटाने में कोई जल्दी नहीं दिखाई। Human Rights और Democracy Index पर अप्रत्यक्ष दबाव डाला, जबकि Defence Deals और Supply Chain Partnerships को आगे बढ़ाया।
Biden की Indo-Pacific policy Trump से अधिक multilateral है, पर मूल स्वार्थ वही है — चीन containment और American manufacturing को बढ़ावा।
टैरिफ की राजनीति: GSP से Indo-Pacific तक
भारत-अमेरिका Trade Disputes का लंबा इतिहास है। WTO में Dairy, Poultry, Pharma, और IT Services पर टकराव चलता रहा। 2019 में GSP हटना और Tariffs लगना एक बड़ा मोड़ था।
नीचे दिया गया चार्ट 2010–2025 के बीच Tariff Trends को दर्शाता है:
चार्ट साफ़ दिखाता है कि 2018 के बाद US Tariffs में तेज़ वृद्धि हुई, जबकि India ने भी Retaliatory Tariffs लगाकर जवाब दिया।
रूस का ठंडा प्रेम और चीन की गर्म दुश्मनी
रूस के साथ भारत का Defence Cooperation ऐतिहासिक है — Sukhoi, BrahMos, S-400, और nuclear submarines इसी रिश्ते की उपज हैं। लेकिन Ukraine War के बाद रूस पर West के sanctions ने भारत के लिए Risk बढ़ा दिया।
चीन के साथ संबंध, 1962 के युद्ध के बाद से ही, “गर्म दुश्मनी” की श्रेणी में आते हैं। Trade Partner होने के बावजूद Strategic Trust न्यूनतम है।
यहाँ दूसरा ग्राफ़ India के तीनों देशों के साथ संबंधों का ट्रेंड दिखाता है:
भारत की रणनीतिक ढुलमुल नीति
भारत “Strategic Autonomy” की बात करता है, लेकिन असल में यह Autonomy अक्सर “No Clear Choice” बन जाती है। एक तरफ US Defence Deals, दूसरी तरफ Russian Equipment Dependency, और तीसरी तरफ Chinese Trade Reality।
Foreign Policy में यह संतुलनकारी खेल भारत को लचीला तो बनाता है, पर कई बार निर्णायक क्षमता कम कर देता है।
भविष्य का रास्ता: साझेदारी या स्वतंत्र राह
भारत को तय करना होगा कि वह US-led Alliance System में गहराई से जाएगा या Multi-Alignment Strategy पर टिकेगा।
US के साथ Free Trade Agreement की संभावना तभी है जब Tariffs और Compliance Demands में लचीलापन आए। रूस के साथ Defence Cooperation को Diversify करना और चीन के साथ Controlled Engagement रखना ज़रूरी है।
निष्कर्ष: हकीकत का सामना
अमेरिका की दोस्ती में व्यापारिक स्वार्थ और रणनीतिक गणना का मिश्रण है। चीन के मुद्दे पर उसका भारत-प्रेम केवल उतना गहरा है जितना उसके अपने हित। ट्रम्प ने इसे नंगा कर दिखा दिया, बाइडेन ने बस नए कपड़े पहना दिए।
अगर भारत को सचमुच स्वतंत्र शक्ति बनना है, तो उसे अमेरिकी “मूर्ख व्यापारी” और “धूर्त साझीदार” दोनों रूपों से सावधान रहना होगा — और अपनी राह खुद बनानी होगी, न कि किसी और की Indo-Pacific blueprint पर।
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