प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संभावित चीन यात्रा ने भारत के भीतर और बाहर राजनीतिक व रणनीतिक हलकों में गहरी चर्चा छेड़ दी है। एक ओर इसे भारत और चीन के बीच बिगड़े रिश्तों को पटरी पर लाने का प्रयास बताया जा रहा है, तो दूसरी ओर सवाल उठ रहा है कि क्या यह यात्रा भारत की सशक्त प्रतिक्रिया को कमजोर नहीं कर देगी?
चीन के साथ भारत का संबंध हमेशा जटिल और विरोधाभासी रहा है। सीमाओं पर तनाव और युद्ध जैसी स्थितियाँ बनी रहीं, फिर भी दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते लगातार मजबूत होते रहे। ऐसे में जब गलवान की चोटें अब तक हरी हैं और लद्दाख में स्थिति जस की तस है, प्रधानमंत्री मोदी का चीन जाना भारत की विदेश नीति को अवसरवादी और ढुलमुल रंग में रंगने वाला कदम माना जा रहा है।
ऐतिहासिक संदर्भ
भारत–चीन संबंधों की पृष्ठभूमि 1962 के युद्ध से ही संदेह और अविश्वास से भरी रही है। “हिंदी-चीनी भाई-भाई” के नारे से शुरू हुई दोस्ती युद्ध की आग में जलकर खत्म हो गई। इसके बाद कई दशकों तक दोनों देशों के रिश्ते सीमित और सतर्क बने रहे।
1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के साथ भारत और चीन ने व्यापारिक सहयोग बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन सीमा विवाद और पाकिस्तान के मुद्दे पर मतभेद कायम रहे। वाजपेयी और मनमोहन सिंह के दौर में भी संबंधों में आंशिक सुधार हुआ, लेकिन विश्वास की खाई बनी रही।
मोदी के सत्ता में आने के बाद स्थिति नई दिशा में बढ़ी। शी जिनपिंग 2014 में अहमदाबाद आए, मोदी वुहान और महाबलीपुरम में उनसे मिले। ये “अनौपचारिक शिखर बैठकें” इस धारणा पर आधारित थीं कि दोनों नेता व्यक्तिगत तालमेल से संबंधों को नई ऊँचाई देंगे। लेकिन हकीकत इसके उलट साबित हुई।
मोदी युग की चीन नीति
मोदी सरकार की चीन नीति को तीन चरणों में समझा जा सकता है।
1. मित्रता और निवेश का दौर (2014–2016): इस अवधि में भारत ने चीन से निवेश आकर्षित करने और व्यापार को बढ़ाने की कोशिश की। प्रधानमंत्री मोदी ने खुले तौर पर चीन को “दोस्त” बताया।
2. तनाव और टकराव का दौर (2017–2020): डोकलाम में 73 दिन तक चला सैन्य टकराव और 2020 में गलवान की हिंसक झड़प ने रिश्तों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। 20 भारतीय जवानों की शहादत ने जनता के मन में चीन के प्रति गहरा आक्रोश भर दिया।
3. संतुलन और विरोधाभास का दौर (2020 के बाद): एक तरफ भारत ने क्वाड, इंडो-पैसिफिक रणनीति और अमेरिका के साथ साझेदारी को मजबूत किया, दूसरी ओर चीन के साथ व्यापारिक आंकड़े नए रिकॉर्ड बनाने लगे। सीमा पर तनाव जारी है, लेकिन आर्थिक रिश्ते फल-फूल रहे हैं। यही विरोधाभास भारत की नीति को “ढुलमुल” कहने का आधार बनाता है।
यात्रा के भू-राजनीतिक कारण
मोदी की चीन यात्रा के पीछे सिर्फ द्विपक्षीय कारण नहीं, बल्कि व्यापक भू-राजनीतिक समीकरण हैं।
अमेरिका–रूस टकराव: यूक्रेन युद्ध ने रूस को चीन के करीब ला दिया है। भारत रूस पर निर्भर है, पर उसे चीन के साथ रूस की नजदीकी असहज करती है। भारत मानता है कि अगर वह सीधे चीन से संवाद बनाएगा तो रूस पर उसका भरोसा कायम रहेगा।
अमेरिका का दबाव: अमेरिका भारत से मानवाधिकार, लोकतंत्र और चीन-विरोधी गठबंधनों में ज्यादा सक्रियता की अपेक्षा करता है। लेकिन भारत जानता है कि अमेरिका पर अधिक निर्भरता उसे असुरक्षित बना सकती है।
ग्लोबल साउथ की राजनीति: भारत खुद को “ग्लोबल साउथ का नेता” साबित करना चाहता है। लेकिन चीन पहले से ही विकासशील देशों में अपनी आर्थिक ताकत के जरिए प्रभाव जमा चुका है। ऐसे में भारत को चीन से दूरी बनाए रखना महँगा पड़ सकता है।
BRICS और SCO जैसे मंच: चीन इन मंचों का प्रमुख चेहरा है। भारत अगर पूरी तरह दूरी बना लेता है तो इन संगठनों में उसका प्रभाव घट जाएगा।
यानी, यात्रा का उद्देश्य सिर्फ संवाद नहीं, बल्कि इन बहुपक्षीय समीकरणों में भारत की जगह सुरक्षित करना भी है।
सशक्त प्रतिक्रिया की अपेक्षा
लेकिन सवाल यह है कि भारत इस यात्रा में चीन को कौन-सा संदेश देगा?
1. गलवान की शहादत: जनता की अपेक्षा है कि प्रधानमंत्री चीन को साफ बता दें कि सीमा पर शांति के बिना सामान्य संबंध संभव नहीं।
2. व्यापार घाटा: चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 100 अरब डॉलर से ज्यादा है। भारत को यह भी उठाना चाहिए कि वह चीनी डंपिंग नीति का शिकार क्यों बने।
3. सीमा पर यथास्थिति बहाली: चीन ने कई जगहों पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। भारत से अपेक्षा है कि वह इन बिंदुओं पर दबाव बनाए।
अगर मोदी इन मुद्दों पर सख्ती से नहीं बोले तो यह यात्रा सशक्त प्रतिक्रिया के बजाय “मित्रता की औपचारिकता” मानी जाएगी।
अवसरवाद का आरोप
भारत के आलोचक इस यात्रा को “रणनीतिक अवसरवाद” के रूप में देखेंगे।
एक ओर भारत गलवान में अपने सैनिक खोता है, चीन से “बॉयकॉट” की बातें करता है।
दूसरी ओर व्यापार चरम पर पहुँचता है और प्रधानमंत्री खुद चीन जाते हैं।
यह दोहरापन अंतरराष्ट्रीय मंच पर संदेश देता है कि भारत अपने तत्काल लाभ के लिए अपने ही सिद्धांतों से पीछे हट जाता है।
घरेलू राजनीति में भी विपक्ष इसे “कमजोरी” और “समर्पण” के रूप में प्रचारित करेगा।
ढुलमुल चरित्र और अंतरराष्ट्रीय छवि
यात्रा का असर सिर्फ भारत–चीन रिश्तों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि वैश्विक छवि पर भी पड़ेगा।
अमेरिका: अमेरिका इसे भारत के “बैकट्रैकिंग” के रूप में देखेगा। क्वाड और इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत की विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे।
रूस: रूस इसे सकारात्मक मानेगा कि भारत संतुलन बनाए हुए है, लेकिन गहराई में रूस भी देखेगा कि भारत निर्णायक नहीं है।
चीन: चीन इसे अपनी जीत की तरह प्रचारित करेगा – कि भारत दबाव में आया और दोस्ती की पहल की।
पड़ोसी देश: नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देखेंगे कि भारत सीमा विवाद पर भी कठोर नहीं है, तो वे चीन से और ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।
ग्लोबल साउथ: भारत नेतृत्व की दावेदारी करता है, लेकिन ढुलमुल रवैया उसे कमजोर बना देगा।
भविष्य की राह
भारत को अपनी विदेश नीति में स्पष्टता लानी होगी।
नो-नॉनसेंस नीति: सीमा पर शांति और यथास्थिति बहाली के बिना किसी भी सामान्य रिश्ते की संभावना न हो।
व्यापार संतुलन: भारत को चीनी डंपिंग रोकने और घरेलू उद्योग को सुरक्षित करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।
बहुपक्षीय नेतृत्व: BRICS, SCO, ग्लोबल साउथ में भारत को सिर्फ “संतुलन साधने वाला” नहीं, बल्कि निर्णायक नेतृत्व करना चाहिए।
रणनीतिक स्वतंत्रता: भारत को अमेरिका या चीन, किसी के पाले में पूरी तरह खड़ा होने की बजाय स्वतंत्र नीति अपनानी होगी।
निष्कर्ष
मोदी की चीन यात्रा भारत के लिए एक कूटनीतिक अवसर है, लेकिन यह अवसर तभी सार्थक होगा जब भारत सीमा, व्यापार और रणनीति पर स्पष्ट और कठोर संदेश देगा। अन्यथा यह यात्रा भारत की विदेश नीति को अवसरवादी और ढुलमुल चरित्र में बदल देगी।
भारत को अब यह तय करना है कि वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक निर्णायक शक्ति बनेगा या परिस्थितियों के अनुसार झुकता रहने वाला अवसरवादी राष्ट्र। मोदी की चीन यात्रा इस प्रश्न का उत्तर देने वाली होगी।
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