भारत का टेंटुआ दबाकर वसूली करना चाहते हैं अमेरिका और चीन, दादागिरी पर मज़ा लेता रूस




आज की वैश्विक राजनीति एक अजीब विडंबना का मंच बन चुकी है। भारत, जो कभी गुटनिरपेक्ष आंदोलन का अगुवा था, आज विश्व राजनीति की धुरी में खड़ा है। पर इस धुरी पर खड़े होने का अर्थ यह भी है कि हर महाशक्ति भारत से अपने हित साधना चाहती है। अमेरिका और चीन भारत पर अलग-अलग ढंग से दबाव डाल रहे हैं—एक बाज़ार और रणनीतिक साझेदारी के नाम पर ‘कीमत’ वसूलना चाहता है, तो दूसरा धमकी और घेराबंदी से भारत का टेंटुआ दबाना चाहता है। वहीं रूस इस पूरी खींचतान को देखकर अपना मज़ा लेता है और अपनी ‘दादागिरी’ बनाए रखने का अवसर खोजता है।

यह लेख इसी त्रिकोणीय दबाव और भारत की रणनीति का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।


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1. अमेरिका की रणनीति: दोस्ताना दबाव या छुपी वसूली?

अमेरिका खुद को भारत का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक साझेदार बताता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि हर साझेदारी के पीछे उसका स्पष्ट स्वार्थ छिपा है।

(क) रक्षा सौदे और हथियार नीति

भारत आज भी रक्षा क्षेत्र में अमेरिका पर तकनीक और हथियारों के लिए निर्भर हो रहा है। अमेरिका बार-बार भारत को “रूस से दूरी” बनाने की शर्त पर अत्याधुनिक हथियारों और रक्षा तकनीक का वादा करता है। लेकिन इन सौदों का लाभ अमेरिका की कंपनियों को ही होता है। भारत के लिए यह एक छिपी वसूली है—हथियारों की कीमत और राजनीतिक झुकाव दोनों रूपों में।

(ख) व्यापार और बाजार

अमेरिका भारत के विशाल उपभोक्ता बाज़ार को अपने उत्पादों और टेक कंपनियों के लिए सबसे बड़ा अवसर मानता है। वीज़ा नीतियों, शुल्क (टैरिफ़), और प्रतिबंधों के ज़रिये वह भारत पर लगातार दबाव बनाता है। एक ओर वह भारत से अपने निवेश के लिए आसान रास्ते चाहता है, दूसरी ओर भारतीय आईटी कंपनियों और दवा उद्योग पर पाबंदियाँ लगाकर ‘कीमत वसूलता’ है।

(ग) कूटनीतिक वसूली

अमेरिका वैश्विक मंचों पर भारत से हर बार अपने पक्ष में खड़ा होने की उम्मीद करता है—चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध हो, ईरान-इज़राइल टकराव या चीन को घेरने की रणनीति। भारत यदि तटस्थ भी रहता है तो अमेरिका नाराज़ होता है। यह नाराज़गी दरअसल उस दबाव का हिस्सा है, जिसे अमेरिका भारत पर लगातार थोपना चाहता है।


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2. चीन का रवैया: धमकी, घेराबंदी और दबाव

चीन का दृष्टिकोण अमेरिका से बिलकुल अलग है। वह सीधे भारत को कमजोर और नियंत्रित करने की नीति अपनाता है।

(क) सीमा विवाद और सैन्य दबाव

लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक चीन लगातार सीमा पर तनाव पैदा करता है। गलवान जैसी घटनाएँ भारत को चेतावनी देने का साधन हैं। चीन का मक़सद साफ है—भारत को हर समय दबाव में रखना और यह जताना कि एशिया में ‘बॉस’ वही है।

(ख) पड़ोसी देशों को हथियार बनाना

चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ एक स्थायी मोर्चा बनाता है। बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल तक में उसका निवेश और प्रभाव भारत को घेरने की रणनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान में CPEC, श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह, बांग्लादेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश—ये सब भारत के लिए रणनीतिक चुनौती हैं।

(ग) आर्थिक जाल

भारत-चीन व्यापार में भारी असंतुलन है। चीन भारत में अपने सस्ते सामान और टेक्नोलॉजी का अंबार लगाता है, लेकिन भारत को बाज़ार में घुसने नहीं देता। इसका नतीजा यह है कि भारत की घरेलू उद्योग-धंधों पर दबाव बढ़ता है। यह आर्थिक वसूली से कम नहीं।


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3. रूस का रुख: दोस्ताना दूरी और दादागिरी का आनंद

रूस की स्थिति दिलचस्प है। वह भारत से खुलकर टकराव नहीं करता, लेकिन अमेरिका-चीन के दबाव को देखकर “अपना मज़ा” लेता है।

(क) रूस-भारत परंपरागत दोस्ती

शीत युद्ध से लेकर आज तक भारत और रूस (पहले सोवियत संघ) की दोस्ती ने कई बार भारत को बचाया। रूस ने रक्षा और अंतरिक्ष में भारत की बड़ी मदद की।

(ख) यूक्रेन युद्ध और भारत की भूमिका

यूक्रेन युद्ध में रूस को भारत की ज़रूरत है—तेल बेचने के लिए और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन पाने के लिए। भारत ने सस्ते दाम पर रूसी तेल खरीदकर अपनी अर्थव्यवस्था को संभाला। लेकिन रूस भी जानता है कि भारत अमेरिका और यूरोप से रिश्ते तोड़ नहीं सकता। इसलिए रूस एक दूरी बनाकर चलता है, लेकिन जब अमेरिका-चीन भारत पर दबाव बनाते हैं तो रूस को यह “दादागिरी का मज़ा” देता है कि भारत मजबूरन उसकी ओर भी देखे।

(ग) अवसरवाद

रूस अक्सर अपने हथियार सौदों और रणनीतिक साझेदारी को भारत की “मजबूरी” के रूप में पेश करता है। यह उसकी ‘नरम दादागिरी’ है।


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4. भारत की मजबूरी और ताक़त

भारत की स्थिति देखने में दबावग्रस्त लगती है, पर वास्तव में भारत के पास भी बड़े कार्ड हैं।

ग्लोबल साउथ का नेतृत्व: भारत अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों का नेतृत्व करके अमेरिका-चीन के बीच अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है।

बड़ी अर्थव्यवस्था: भारत दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। निवेश और बाज़ार के बिना अमेरिका-चीन दोनों अधूरे हैं।

रक्षा और कूटनीति: भारत क्वाड, ब्रिक्स, SCO और G20 जैसे मंचों पर अपनी कूटनीति से संतुलन बनाता है।

जनसंख्या और प्रतिभा: भारत की युवा आबादी और तकनीकी क्षमता उसे ‘अपरिहार्य शक्ति’ बनाती है।



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5. भविष्य की रणनीति: भारत को क्या करना चाहिए?

1. अमेरिका-चीन की वसूली के खेल को पहचानना और खुले तौर पर अपनी शर्तें रखना।


2. रूस से दोस्ती बनाए रखना, लेकिन पूरी तरह उसके जाल में न फँसना।


3. पड़ोसियों के साथ गहरी साझेदारी—ताकि चीन की घेराबंदी टूटे।


4. आर्थिक आत्मनिर्भरता—चीनी आयात पर निर्भरता कम करना और अमेरिकी दबाव से मुक्त होना।


5. कूटनीतिक संतुलन—तटस्थता की जगह “रणनीतिक सक्रियता” अपनाना।


भारत के सामने आज की चुनौती यह है कि अमेरिका और चीन दोनों उसे “टेंटुआ दबाकर वसूली” के मोहरे की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। वहीं रूस इस दबाव की राजनीति में अपना मज़ा और अवसर खोजता है। लेकिन भारत अब 1947 या 1971 का भारत नहीं है। उसकी ताक़त, जनसंख्या, अर्थव्यवस्था और वैश्विक भूमिका इतनी बड़ी है कि वह इन दबावों से निकलकर अपनी स्वतंत्र राह बना सकता है।

आज भारत के लिए यही समय है कि वह इन वैश्विक दादागीरी को चुनौती देकर अपने हितों की रक्षा करे और दुनिया को दिखा दे कि वह किसी के दबाव में झुकने वाला नहीं है।

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