2025 की वैश्विक राजनीति में भारत एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ हर दिशा अलग किस्म की चुनौती और अवसर लिए हुए है। एक ओर अमेरिका है, जो भारत को Indo-Pacific में China के मुकाबले एक “democratic counterweight” के रूप में देखता है, दूसरी ओर Russia है, जिसके साथ दशकों पुरानी energy और defence partnership अब भी breathing space देती है, और तीसरी ओर China है, जिसके साथ competition, conflict और commerce का एक उलझा हुआ जाल है। इन तीनों महाशक्तियों की भारत संबंधी दृष्टि को समझना केवल कूटनीति का सवाल नहीं है, बल्कि भारत के आर्थिक, सैन्य और तकनीकी भविष्य का भी निर्धारण करता है।
इतिहास में भारत और अमेरिका का रिश्ता हमेशा सीधा नहीं रहा। Cold War के दौरान भारत ने Non-Aligned Movement का झंडा थामा, जबकि अमेरिका पाकिस्तान को ally मानता रहा। 1971 के Bangladesh Liberation War के समय US Seventh Fleet का हिंद महासागर में आना भारत के लिए सैन्य दबाव का प्रतीक बना। 1998 में Pokhran-II nuclear tests के बाद अमेरिका ने severe economic sanctions लगाए, जो भारत की आर्थिक नीति और defence procurement दोनों को प्रभावित करते रहे। 2005–08 में Civil Nuclear Deal ने संबंधों में नया मोड़ दिया, लेकिन यह भी पूरी तरह trust-based alliance नहीं था, बल्कि transactional cooperation का एक स्वरूप था।
रूस के साथ भारत का रिश्ता अलग रंग लिए हुए रहा है। 1971 का Treaty of Peace, Friendship and Cooperation, Bangladesh युद्ध के दौरान Soviet support, और दशकों तक defence cooperation — MiG-21 से लेकर BrahMos तक — ने इस संबंध को गहरे भरोसे की नींव दी। रूस ने कभी भारत पर औपचारिक sanctions नहीं लगाए और UNSC में हमेशा supportive रुख अपनाया। लेकिन 2022 के बाद Ukraine war और Western sanctions ने Russia की क्षमता को सीमित कर दिया। अब वह energy और defence तो दे सकता है, लेकिन technology innovation और capital investment में India को अकेला नहीं खींच सकता।
चीन के साथ कहानी और भी पेचीदा है। 1962 के border war ने mistrust की नींव रखी। 1990s में economic liberalization के साथ trade बढ़ा, लेकिन 2017 के Doklam standoff और 2020 के Galwan clash ने यह साबित कर दिया कि border tensions और economic engagement साथ-साथ चल सकते हैं, परंतु भरोसे का deficit गहराता ही जाएगा। 2024 में bilateral trade $130 billion तक पहुंचा, लेकिन $95 billion का trade deficit India के खिलाफ रहा। China rare earths और critical minerals पर export restrictions, non-tariff barriers और supply chain control का इस्तेमाल strategic leverage के लिए करता है।
2020 से 2025 के बीच घटनाओं ने भारत की foreign policy पर गहरा असर डाला। Galwan clash ने LAC पर permanent troop deployment को मजबूर किया और Chinese apps ban का रास्ता खोला। Quad leaders’ summit ने Indo-Pacific alignment का संकेत दिया, जबकि 2022 में Ukraine war के बाद Russia से discounted crude imports ने India को Western displeasure का सामना कराया। 2023 में G20 Presidency ने Global South में leadership narrative को मजबूत किया, लेकिन 2025 में अमेरिका द्वारा Indian goods पर selective tariffs ने trade friction को उजागर कर दिया।
अमेरिका की नज़र में भारत एक strategic partner है, लेकिन यह partnership “compliance” पर आधारित है। Defence deals जैसे F-414 jet engine manufacturing और MQ-9B drones sale तो हैं, लेकिन technology transfer सीमित है। Average tariff rates 50% तक हैं और WTO में agriculture subsidies तथा pharma IP rights को लेकर disputes चलते रहते हैं। अमेरिका चाहता है कि भारत Russia और Iran के साथ अपने strategic engagements को सीमित रखे, अन्यथा support में कमी आ सकती है।
रूस की दृष्टि में भारत अभी भी सबसे भरोसेमंद partners में से एक है। 2024 में Russia का सबसे बड़ा oil buyer India बना, और payments rupees तथा dirhams में होने लगे। Defence cooperation में S-400 systems और AK-203 rifles का production जारी है, और Su-30MKI के spare parts sanctions के बावजूद मिलते हैं। लेकिन Russia जानता है कि India अब defence procurement diversify कर रहा है और US से strategic gains भी ले रहा है।
चीन भारत को एक regional competitor के रूप में देखता है, partnership के रूप में नहीं। Border पर लगातार सैन्य तैनाती, Belt and Road Initiative में भारत का बहिष्कार, और economic tools के माध्यम से दबाव — यह उसकी नीति के स्थायी तत्व हैं। वह trade deficit और technology dependence को leverage की तरह इस्तेमाल करता है। Rare earths और gallium जैसी critical inputs के export controls इसका उदाहरण हैं।
तीनों देशों की तुलना करें तो अमेरिका के पास tariff और tech access leverage है, रूस के पास energy और defence supplies हैं, और चीन के पास trade barriers और supply chain control। Trust के स्तर पर Russia के साथ ऐतिहासिक भरोसा सबसे अधिक है, अमेरिका के साथ मिश्रित, और चीन के साथ बेहद कम। लेकिन risk के स्तर पर अमेरिका से policy compliance का दबाव, रूस की limited capacity, और चीन के साथ border tensions — तीनों एक साथ चुनौती बनकर खड़े हैं।
भारत के लिए आगे का रास्ता केवल balance साधना नहीं हो सकता। Defence procurement को diversify करना, China के साथ trade deficit घटाना, US deals में deeper tech transfer negotiate करना, Russia के अलावा Middle East में energy security सुनिश्चित करना, और border infrastructure को मजबूत करना — यह सब एक ही समय में करना होगा। Strategic autonomy का असली मतलब यही है कि भारत अपने निर्णय स्वयं ले, भले ही किसी भी महाशक्ति को यह असुविधाजनक लगे।
अमेरिकी dada-giri, रूसी udaasinta और चीनी pratibandh के बीच भारत का dhulmul charitra तभी समाप्त हो सकता है जब वह proactive strategy अपनाए, न कि केवल reactive balancing। अब समय है कि भारत सिर्फ global chessboard का मोहरा न रहे, बल्कि अपनी चाल से खेल बदले।
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