भूमिका: सतह से गहराई तक की कहानी
भारत और अमेरिका के रिश्ते आज दुनिया के सबसे चर्चित द्विपक्षीय संबंधों में गिने जाते हैं। रक्षा समझौते, व्यापारिक सहयोग, विज्ञान–तकनीकी साझेदारी, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समन्वय—इन सभी में निरंतर वृद्धि हुई है। लेकिन इसी के साथ एक ऐसा पहलू भी है, जिसे अक्सर सतही विश्लेषण में नजरअंदाज कर दिया जाता है—और वह है नस्लीय मानसिकता का प्रभाव।
आपका कथन कि “अमेरिका का भारत पर टैरिफ केवल आर्थिक और रणनीतिक अपराध नहीं, बल्कि नस्लवादी ग्रंथि से पीड़ित यूरो-अमेरिकी 'सेफ दिमाग' की उपज है” इस मुद्दे के मूल में चोट करता है। यह बात सच है कि आर्थिक नीतियों के पीछे अक्सर मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक पूर्वाग्रह छिपे रहते हैं, जिनकी जड़ें औपनिवेशिक युग से जुड़ी हैं।
औपनिवेशिक मानसिकता की विरासत: चमड़ी का रंग और साझेदारी की परिभाषा
औपनिवेशिक इतिहास हमें बताता है कि पश्चिमी देशों ने अपनी शक्ति को हमेशा “सभ्यता” और “श्रेष्ठता” के नैरेटिव से जोड़ा। इसमें गोरी चमड़ी को नेतृत्व और अधिकार का प्रतीक, और गहरी त्वचा को अधीनता और सेवा का प्रतीक माना गया।
यही कारण है कि जब अमेरिका और यूरोप किसी देश के साथ आर्थिक–रणनीतिक संबंध बनाते हैं, तो उनकी मानसिकता अनजाने में भी इसी ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संचालित होती है।
गोरी चमड़ी वाले “पुतिन” (रूस), पीली चमड़ी वाले “चीनी” (चीन) के साथ वे बराबरी की कठोर–मुलायम नीति अपनाते हैं, लेकिन भूरी या काली चमड़ी वाले भारत और अफ्रीकी देशों को अक्सर “अनुयायी” या “निर्देश पालन करने वाले” सहयोगी के रूप में देखते हैं।
नस्लीय ग्रंथि का वैश्विक राजनीति में असर
आज भी अमेरिकी मीडिया और थिंक टैंक रिपोर्ट्स में भारत को अक्सर “उभरती शक्ति” कहा जाता है, लेकिन यह शब्द कई बार छिपी हुई श्रेष्ठता-बोध की झलक देता है—मानो भारत अभी भी “परिपक्व” नहीं हुआ है और उसे “गाइडेंस” की ज़रूरत है।
टैरिफ लगाना, वीज़ा नियम कड़े करना, तकनीकी ट्रांसफर में अड़चन डालना—ये सब नीतिगत कदम केवल आर्थिक या सुरक्षा कारणों से नहीं होते, बल्कि उनमें यह धारणा भी झलकती है कि “ग्लोबल साउथ” को नियंत्रण में रखना ज़रूरी है।
ग्लोबल साउथ के प्रति पितृसत्तात्मक नज़रिया
अमेरिका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर ग्लोबल साउथ के देशों के साथ “दोस्ती” और “साझेदारी” की बात करता है। लेकिन पर्दे के पीछे की कूटनीति में अक्सर एक पितृसत्तात्मक रवैया दिखता है—
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हम नियम बनाएंगे, आप पालन करेंगे।
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हम दिशा देंगे, आप चलेंगे।
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हमारे मानकों से सहमत न हों, तो आर्थिक दंड मिलेगा।
भारत, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के लिए यह चुनौती है कि वे इस रिश्ते में अपने अधिकार और स्वाभिमान की रक्षा करें, बिना इस जाल में फंसे कि “पश्चिमी मान्यता ही सफलता की कसौटी है।”
भारत–अमेरिका संबंध: बराक ओबामा का दौर
बराक ओबामा के राष्ट्रपति कार्यकाल (2009–2017) में भारत–अमेरिका संबंधों में एक विशेष गर्मजोशी देखी गई। ओबामा का व्यक्तिगत पृष्ठभूमि (अफ्रीकी–अमेरिकी पहचान, बहुसांस्कृतिक दृष्टिकोण) उन्हें ग्लोबल साउथ के देशों के साथ जुड़ने में अधिक सहज बनाती थी।
ओबामा के दौर की खास बातें:
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2010 में भारत की ऐतिहासिक यात्रा, जहाँ उन्होंने संयुक्त सत्र में भारत की प्रशंसा की।
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भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के समर्थन का संकेत।
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“डीप पार्टनरशिप” का विज़न, जिसमें रक्षा, शिक्षा और ऊर्जा सहयोग पर जोर।
ओबामा के व्यवहार में सम्मान और समानता की भावना स्पष्ट थी, जो बाद के नेताओं में अपेक्षाकृत कम दिखी।
ओबामा के बाद का दौर: ट्रंप और बाइडेन की नीतियाँ
डोनाल्ड ट्रंप (2017–2021) के समय “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने रिश्तों को अधिक लेन-देन वाले स्वरूप में ढाल दिया। भारत को लेकर उनके बयान कभी-कभी सहयोगी की जगह प्रतिस्पर्धी जैसे होते थे।
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भारतीय स्टील और एल्युमीनियम पर टैरिफ।
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जीएसपी (Generalized System of Preferences) में भारत को मिली रियायत का अंत।
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वीज़ा नियमों में सख्ती।
जो बाइडेन (2021–वर्तमान) ने भले ही औपचारिक रूप से साझेदारी को मजबूत रखने की बात की, लेकिन उनकी एशिया नीति में चीन पर ध्यान केंद्रित रहने के कारण भारत को अक्सर “रणनीतिक मोहरे” के रूप में देखा गया—विशेषकर QUAD और इंडो-पैसिफिक रणनीति में।
अमेरिका की चीन–केंद्रित नीति में भारत की भूमिका
अमेरिका चाहता है कि भारत चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में सक्रिय भूमिका निभाए, लेकिन साथ ही वह भारत को रक्षा तकनीक, सेमीकंडक्टर और उच्च-स्तरीय विज्ञान सहयोग में पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं करता। यह एक प्रकार का नियंत्रित साझेदारी मॉडल है—जहाँ भारत को कुछ लाभ मिलते हैं, लेकिन पूर्ण आत्मनिर्भरता की दिशा में बाधाएँ भी खड़ी होती हैं।
रणनीतिक साझेदारी बनाम वास्तविक साझेदारी
अमेरिका और भारत के बीच कई समझौते हुए हैं—LEMOA, COMCASA, BECA—जिन्हें रणनीतिक साझेदारी का उदाहरण माना जाता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि इनमें से कई समझौते भारत की रक्षा और तकनीकी निर्भरता को भी बढ़ाते हैं।
भारत को यदि सच्ची समान साझेदारी चाहिए, तो उसे अमेरिका के साथ संतुलित दूरी बनाते हुए, रूस, यूरोप, और ग्लोबल साउथ के देशों के साथ बहु–ध्रुवीय नीति अपनानी होगी।
ग्लोबल साउथ के प्रति अमेरिका की द्वैध नीति
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जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका कहता है “सभी देश जिम्मेदार हैं”, लेकिन ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन में अपनी जिम्मेदारी से बचता है।
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व्यापार में “फ्री मार्केट” की बात करता है, लेकिन टैरिफ और सब्सिडी से अपने किसानों और उद्योगों को बचाता है।
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लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात करता है, लेकिन जिन देशों में उसके हित हैं, वहाँ के अधिनायकवाद को नजरअंदाज करता है।
भारत की रणनीतिक चुनौतियाँ और अवसर
भारत को यह समझना होगा कि अमेरिका–भारत साझेदारी तभी स्थायी और सम्मानजनक होगी जब भारत अपनी आर्थिक, सैन्य और तकनीकी क्षमता में इतना मजबूत हो जाए कि वह किसी भी नस्लीय मानसिकता या आर्थिक दबाव के सामने झुकने के बजाय अपनी शर्तें रख सके।
इसके लिए—
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घरेलू उत्पादन और तकनीकी आत्मनिर्भरता।
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दक्षिण–दक्षिण सहयोग (ग्लोबल साउथ) को मज़बूत करना।
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बहु–ध्रुवीय कूटनीति का विस्तार।
निष्कर्ष: नस्लीय मानसिकता को पहचानना और स्वतंत्र वैश्विक नीति की ज़रूरत
अमेरिका का भारत पर टैरिफ लगाना, या व्यापार में कठिन शर्तें थोपना, केवल आर्थिक रणनीति नहीं—बल्कि एक गहरी, ऐतिहासिक और नस्लीय सोच का हिस्सा है। ओबामा के समय की गर्मजोशी और समानता की कोशिश के बाद, ट्रंप और बाइडेन के दौर में यह साझेदारी फिर से पुराने औपनिवेशिक मानसिक ढांचे में लौटने लगी है।
भारत को अब यह तय करना है कि वह इस मानसिकता को पहचानते हुए अपने रास्ते पर चले—जहाँ साझेदारी सम्मान पर आधारित हो, न कि गुलामी के अवशेष पर।
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