✍️ विशेष टिप्पणी: जातीय गठबंधन की राजनीति में दलित कौन? सहयोगी या शिकार?
उत्तर प्रदेश की राजनीति, जो एक समय में सामाजिक न्याय के नारे और बहुजन एकता की बुनियाद पर खड़ी थी, आज उसी की छाया में दलितों के आत्मसम्मान को लगातार चुनौती मिल रही है। राहुल वाल्मीकि प्रकरण, जो बुलंदशहर जिले में हुआ, केवल एक व्यक्तिगत घटना के रूप में देखा जा सकता था। लेकिन जिस तरह से इसे राजनीतिक, सामाजिक और जातिगत रंग दिया गया, उसने एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा कर दिया कि – क्या आज भी दलितों के लिए राजनीतिक गठबंधन ‘साथी’ हैं या सिर्फ ‘स्वार्थी’?
1. राहुल वाल्मीकि मामला: एक व्यक्तिगत घटना का जातिगत अभियोग
जुलाई 2025 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले से एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें भाजपा के जिला मंत्री राहुल वाल्मीकि को एक महिला के साथ कार में ‘आपत्तिजनक स्थिति’ में दिखाया गया। यह वीडियो कब्रिस्तान के पास रिकॉर्ड किया गया था।
यह एक आपत्तिजनक मामला था, लेकिन न कोई हिंसा थी, न कोई आपराधिक शिकायत दर्ज की गई थी।
लेकिन इसके बाद जो हुआ, वह कहीं अधिक खतरनाक और चिंताजनक था:
स्थानीय यादव और मुस्लिम समुदायों के कार्यकर्ताओं ने इस घटना को वायरल कर ‘नैतिक पतन’ की सार्वजनिक सज़ा के रूप में प्रचारित किया।
सोशल मीडिया पर राहुल वाल्मीकि की जाति को केंद्र में रखकर ‘दलित नेता की शर्मनाक हरकत’ जैसा विमर्श गढ़ा गया।
स्वयंभू सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ मुस्लिम-यादव नेता इसे दलित विरोधी नहीं, भाजपा विरोधी नैतिक विमर्श बताने लगे, जबकि वीडियो में किसी महिला की पहचान को भी उजागर किया गया, जो कानूनन गलत है।
यहां सवाल उठता है – क्या यह एक दलित नेता की 'गलती' को उजागर करने का ईमानदार प्रयास था, या उसके जातिगत आत्मसम्मान को कुचलने और राजनीतिक रूप से बेइज्जत करने का सुनियोजित हमला?
2. गेस्ट हाउस कांड: सामाजिक न्याय बनाम जातीय वर्चस्व की पहली दरार
साल 1995 में लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड, भारतीय राजनीति के जातीय गठबंधन की सबसे गहरी त्रासदी थी। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने जब समाजवादी पार्टी से समर्थन वापस लिया, तब यादव समर्थकों ने लखनऊ के राज्य अतिथि गृह में उनके ऊपर हमला कर दिया।
उन्हें गालियाँ दी गईं,
उनके बाल खींचे गए,
जान से मारने की कोशिश की गई,
और यह सब सपा नेताओं की उपस्थिति में हुआ।
यह घटना केवल दो दलों के बीच सत्ता संघर्ष नहीं था, बल्कि एक दलित महिला नेता के आत्मसम्मान पर सुनियोजित हमला था। मायावती ने उस समय बीजेपी से समर्थन लेकर सरकार बनाई, लेकिन यह गठबंधन टिकने वाला नहीं था — क्योंकि दलितों को सत्ता में देखना पिछड़ी जातियों के एक हिस्से को स्वीकार नहीं था।
3. चंद्रशेखर आज़ाद 'रावण': भीम चेतना पर जातीय हमले
भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ आज के दौर के दलित युवाओं की एक सशक्त आवाज़ बन चुके हैं। जब वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अहीर-बहुल क्षेत्रों में रैलियों के लिए पहुंचे, तो उन पर कई बार हमले हुए। कारण?
वह दलित थे।
वह बराबरी की बात कर रहे थे।
और उन्होंने यादव और अहीर वर्चस्व वाले विपक्षी सत्ता नेटवर्क को चुनौती दी थी।
ऐसे हमले यह साबित करते हैं कि दलितों की सशक्त उपस्थिति सिर्फ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना के लिए भी असहज कर देती है।
4. PDA गठबंधन: नारा ज्यादा, नीयत कम?
2024 के लोकसभा चुनावों से पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने नया नारा दिया — PDA: पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक। इसका उद्देश्य BJP की ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ को चुनौती देना और अपने खोए हुए जनाधार को फिर से जोड़ना था।
लेकिन क्या PDA वास्तव में एक समानता पर आधारित गठबंधन है?
जमीनी सच्चाई:
बुलंदशहर में राहुल वाल्मीकि को PDA के स्वयंभू रक्षकों ने सार्वजनिक रूप से अपमानित किया।
किसी भी प्रमुख मुस्लिम संगठन या सपा नेता ने यह सवाल नहीं उठाया कि उसकी पहचान सार्वजनिक क्यों की गई?
क्या PDA केवल इतना है कि दलितों के वोट लिए जाएं, लेकिन जब दलित नेतृत्व सवाल करे या ताकत दिखाए, तो उसे गंदगी में घसीट दिया जाए?
यह गठबंधन केवल आंकड़ों और वोट प्रतिशतों का जोड़ है। यह सामाजिक न्याय का वास्तविक मोर्चा नहीं, बल्कि पिछड़े और मुस्लिम वर्चस्व का नया गठजोड़ है।
5. राहुल वाल्मीकि की ‘राजनीतिक सामाजिक मृत्यु’
राहुल वाल्मीकि से गलती हुई या नहीं — यह कानूनी जांच का विषय है। लेकिन उनका वीडियो जिस तरह लीक हुआ, और जिस तरह यादव और मुस्लिम सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं ने उसे फैलाया, यह बताता है कि उसका उद्देश्य नैतिक सुधार नहीं, दलित नेतृत्व को सार्वजनिक रूप से अपमानित करना था।
क्या कभी किसी यादव या मुस्लिम नेता के निजी वीडियो को इतनी तेजी से वायरल किया गया?
क्या ऐसे मामलों में 'शर्म करो' जैसे नैतिक वाक्य सार्वजनिक रूप से चलाए गए?
क्या राहुल को वह ‘गौरव’ मिला जो एक सामान्य नागरिक को कानून के तहत मिलना चाहिए?
उत्तर स्पष्ट है — नहीं।
6. कौन हैं दलितों के सच्चे साथी?
भारत में दलित राजनीति हमेशा से दोधारी तलवार पर चलती रही है। जब भी दलित नेतृत्व ने अपनी अलग पहचान बनानी चाही — वह कांशीराम हों, मायावती, रामदास अठावले या आज के चंद्रशेखर रावण — उन्हें किसी न किसी तरह “मुखरता की सज़ा” दी गई।
राहुल वाल्मीकि के केस में यह मुखरता – एक सफाईकर्मी होकर सत्ता में आना, शिकायत दर्ज करना, मीडिया में दिखना – असहनीय बन गया। खासकर उन जातियों के लिए जो खुद को 'सामाजिक न्याय' का ठेकेदार मानती हैं।
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7. मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका: जातिगत न्याय का मुखौटा
यह घटना बताती है कि कैसे मीडिया — खासकर सोशल मीडिया — दलित नेताओं के लिए अलग मानदंड अपनाता है:
एक ब्राह्मण नेता पर ऐसा वीडियो होता तो शायद उसकी ‘प्राइवेसी’ की रक्षा होती।
यादव या मुस्लिम नेता के मामले में 'साजिश' की थ्योरी बनती।
लेकिन राहुल वाल्मीकि पर कोई रक्षात्मक स्वर नहीं, बस दुत्कार।
यह ‘न्याय’ नहीं, बल्कि ‘जातिगत मानसिकता का डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम’ है, जहां दलितों को केवल एक सीमित भूमिका में देखना स्वीकार्य है।
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8. कब्रिस्तान या श्मशान: दलितों की पवित्रता भी अपवित्र मानी जाती है
जिस स्थान पर यह घटना हुई — एक कब्रिस्तान के पास — वह संयोग नहीं, प्रतीक है।
जिस तरह समाज में आज भी दलितों के श्मशान अलग होते हैं, उसी तरह उनकी नैतिकता और राजनीतिक गरिमा के लिए भी अलग मापदंड हैं।
यह दोहराता है कि चाहे वे मृत हों या जीवित, दलितों को सामाजिक शुचिता का प्रमाण बार-बार देना पड़ता है।
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निष्कर्ष: राहुल वाल्मीकि से रावण तक — PDA का झूठा पुल
राहुल वाल्मीकि की घटना हमें बताती है कि सामाजिक न्याय के नाम पर खड़ा किया गया राजनीतिक मंच अब दलित विरोध की नई संरचना बन चुका है। PDA का मतलब है:
P: पिछड़ा वर्चस्व
D: दलित केवल वोट
A: अल्पसंख्यक राजनीतिक मुखौटा
जब तक दलितों को बराबरी का साथी नहीं माना जाएगा,
जब तक उनके आत्मसम्मान की रक्षा केवल ‘राजनीतिक अनुकूलता’ से नहीं की जाएगी,
तब तक कोई गठबंधन उनका सच्चा प्रतिनिधि नहीं हो सकता।
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🔚 राहुल वाल्मीकि एक व्यक्ति नहीं, एक प्रतीक हैं — उस दलित आत्मसम्मान का, जो बार-बार राजनीति की साजिशों में रौंदा जाता है। और जब तक यह सिलसिला नहीं रुकेगा, तब तक गेस्ट हाउस से लेकर कब्रिस्तान तक दलितों की पीड़ा यही कहेगी — 'साझेदारी नहीं, सिर्फ इस्तेमाल!'
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