मैला ढोने की प्रथा: मुस्लिम शासन की देन और एक ऐतिहासिक कलंक


भारत में मैला ढोने की अमानवीय प्रथा एक ऐतिहासिक अन्याय है, जिसने लाखों दलितों और विशेष रूप से वाल्मीकि समुदाय (भंगी) को सदियों तक सामाजिक और आर्थिक गुलामी में जकड़ कर रखा। इस प्रथा को अक्सर हिंदू समाज के जातीय ढांचे का परिणाम माना गया, लेकिन गहराई से ऐतिहासिक विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि इस प्रथा को व्यवस्थित, संगठित और संस्थागत रूप से लागू करने में मुस्लिम शासन की प्रमुख भूमिका रही। इस लेख में हम इसी तथ्य की विवेचना करेंगे कि किस प्रकार मुस्लिम शासकों के काल में 'मैला ढोना' एक औपचारिक, विवशकारी और शोषणकारी व्यवस्था में बदल गया।


1. ‘मैला ढोना’ क्या है?


'मैला ढोना' का अर्थ है मानव द्वारा दूसरे मानव का मल-मूत्र साफ करना — खुले में शौच या कच्चे शौचालयों से हाथों, टोकरियों और खप्पचियों की मदद से। यह कार्य जाति-आधारित श्रम व्यवस्था के तहत सदियों से विशेष समुदाय, विशेषकर वाल्मीकि/भंगी समाज को सौंपा गया।



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2. हिंदू समाज में अस्पृश्यता और श्रम विभाजन


प्राचीन हिंदू समाज में जाति व्यवस्था मौजूद थी, परंतु उसके प्रारंभिक रूप में वर्ण व्यवस्था लचीली थी। वैदिक काल में शूद्रों को अछूत नहीं माना जाता था। समाज में श्रम विभाजन था, लेकिन 'मैला ढोने' जैसा कार्य कहीं भी धार्मिक रूप से अनिवार्य या सामाजिक रूप से बाध्यकारी रूप में वर्णित नहीं है। 'मनुस्मृति' जैसे ग्रंथों में अछूतों का उल्लेख मिलता है, लेकिन वे भी 'मल-मूत्र ढोने' के लिए बाध्य नहीं किए गए थे। यह कार्य न तो किसी धार्मिक कर्तव्य के रूप में वर्णित है, न किसी राजनीतिक आदेश से संरचित।



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3. मुस्लिम शासन की स्थापना और नगर व्यवस्था की जरूरत


जब 12वीं सदी के बाद भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों का शासन स्थापित हुआ — जैसे दिल्ली सल्तनत (गुलाम वंश, खिलजी, तुगलक, लोदी) और फिर मुगल साम्राज्य — तो शहरीकरण बढ़ा। नगरों में महलों, किलों, मस्जिदों, बाग-बग़ीचों, सरायों और शौचालयों की आवश्यकता पड़ी। इसके साथ ही साफ-सफाई के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता भी बढ़ी जो 'अछूत' समझे जाते थे और जिन्हें सामाजिक रूप से विरोध करने की शक्ति नहीं थी।



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4. ‘मैला ढोने’ को पेशे के रूप में लागू करना: मुस्लिम प्रशासन की नीतियाँ


मुस्लिम शासन में ‘मेहतर’ और ‘हलालखोर’ जैसे शब्दों का उपयोग किया गया, जो वाल्मीकि या भंगी समुदाय के मुस्लिम रूपांतरण वाले लोगों के लिए था। इन लोगों को नगर निगमों और महलों की साफ-सफाई में नियोजित किया गया। मुगलों के काल में हर प्रमुख नगर में नगरपालिका जैसा ढांचा था जिसमें सफाईकर्मी अनिवार्य रूप से नियुक्त किए जाते थे।


उदाहरण:


मुगल शासन में बड़े नगरों (जैसे आगरा, दिल्ली, लाहौर) में विशेष रूप से 'हलालखोर' कर्मचारियों की नियुक्ति होती थी, जिन्हें न केवल नालियों की सफाई बल्कि मलमूत्र ढोने का कार्य भी सौंपा जाता था।


उन्हें वेतन या पारिश्रमिक नहीं, बल्कि भोजन या बचा हुआ सामान दिया जाता था।


कुछ स्थानों पर मुस्लिम शासकों ने भंगी जाति के मुस्लिमों को गुलाम बनाकर इस कार्य में स्थायी रूप से नियोजित किया। वे इसे "पैदाइशी पेशा" मानते थे।




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5. धार्मिक दोहरा मानदंड: इस्लाम में समानता और भारतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद


इस्लाम का मूल सिद्धांत जातिवाद को नकारता है। परंतु भारत में मुस्लिम शासन के दौरान 'अशरफ' (अरबी, पठान, तुर्क) और 'अजलाफ/अर्जल' (स्थानीय निम्न जाति के मुस्लिम) का भेद उत्पन्न हुआ। भंगी मुसलमानों को 'अर्जल' मानकर मस्जिदों और कब्रिस्तानों से दूर रखा गया। मुस्लिम समाज ने 'हलालखोर' जैसे समुदायों को उसी प्रकार तिरस्कारपूर्ण स्थान दिया जैसे हिन्दू समाज में 'भंगी'।


तर्क:


यदि मुस्लिम शासन जातिवाद के खिलाफ होता, तो वाल्मीकि मुसलमानों को समान दर्जा मिलता।


मगर वे सिर्फ पेशेवर "मैला ढोने वाले" बना दिए गए।




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6. व्यवस्थित गुलामी की शक्ल: मैला ढोने को जन्मसिद्ध पेशा बना देना


मुस्लिम शासकों ने मैला ढोने के काम को जातिगत और जन्मसिद्ध पेशा बना दिया। यह अवधारणा कि 'भंगी का बेटा भंगी ही बनेगा', इसी युग में व्यवस्थित हुई। प्रशासनिक दस्तावेजों, सैन्य रिकॉर्ड, और नगरपालिकाओं में इन समुदायों को नाम लेकर अलग किया गया।


'हलालखोर' और 'मेहतर' के लिए विशेष बस्तियाँ बनाई गईं, जो मुख्य नगरों से दूर होती थीं।


इस पेशे को त्यागने वालों को दंडित किया जाता था या उन्हें निर्वासित कर दिया जाता था।


महिलाओं को भी इसी कार्य में झोंका गया, जिससे सामाजिक, आर्थिक और यौन शोषण की स्थिति उत्पन्न हुई।




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7. मुगल शासनकाल में बढ़ा संस्थागत भेदभाव


अकबर के शासन को उदार माना जाता है, परंतु अकबर से औरंगज़ेब तक किसी भी शासक ने 'भंगियों' या 'मेहतरों' के सामाजिक उत्थान के लिए कोई नीतिगत सुधार नहीं किया। वे दरबार, सेना, शिक्षा और धर्म सभी क्षेत्रों से बाहर रखे गए।


केवल उनकी सेवाएं ली जाती थीं, अधिकार नहीं दिए जाते थे।


इस युग में 'मैला उठाना एक जातीय दायित्व' बन गया — यह भावना मुस्लिम प्रशासन के आदेशों से पुख्ता हुई।




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8. भक्ति आंदोलन बनाम मुस्लिम सत्ता


15वीं से 17वीं सदी में चल रहे भक्ति आंदोलन — कबीर, रैदास, दादू जैसे संतों ने जातिवाद पर करारा प्रहार किया। परंतु मुस्लिम सत्ता ने इन आंदोलनों को न समर्थन दिया, न फैलने दिया। कई संतों की रचनाएँ प्रतिबंधित की गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि भंगी समाज को विचारधारा से प्रेरणा तो मिली, पर प्रशासन से कोई राहत नहीं।



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9. सांस्कृतिक विमर्श में भंगियों की अनुपस्थिति


मुस्लिम शासन के सांस्कृतिक योगदान जैसे स्थापत्य, संगीत, फारसी-अरबी साहित्य में 'भंगी' या 'मेहतर' की कोई सकारात्मक या मानवीय छवि नहीं मिलती। वे केवल 'नौकर', 'साफ़ करने वाले' या 'नीच' कहे जाते हैं। इस विमर्शहीनता ने भंगियों की सामाजिक मर्यादा को और समाप्त कर दिया।



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10. अंग्रेज़ों ने इस प्रथा को विरासत में लिया


जब अंग्रेज़ भारत आए, तो उन्होंने भारतीय समाज की जो सफाई व्यवस्था पाई, उसे जारी रखा। उन्होंने भी मैला ढोने को संस्थागत कर दिया — नगरपालिकाओं में नियुक्तियां कीं, परंतु यह प्रथा मुस्लिम शासन से ही चली आ रही थी। अंग्रेज़ों ने केवल इसका शहरीकरण किया, इसे शुरू नहीं किया।



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निष्कर्ष:


भारत में मैला ढोने की प्रथा किसी धार्मिक आदेश का नहीं, बल्कि राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का परिणाम थी। मुस्लिम शासन ने इस अमानवीय कार्य को जन्मजात पेशा बना कर संस्थागत किया, जिससे लाखों लोग पीढ़ियों तक सामाजिक अन्याय और आर्थिक शोषण के शिकार बने।


हिंदू समाज के जातीय ढांचे में अस्पृश्यता की जड़ें भले थीं, पर ‘मैला ढोना’ जैसी अमानवीय प्रथा को विवशतापूर्ण पेशा और उत्तराधिकार व्यवस्था बनाने का कार्य मुख्यतः मुस्लिम शासन की देन है।



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सुझाव:


आज जब भारत संविधान, मानवाधिकार और समानता की बात करता है, तो यह जरूरी है कि हम अपने इतिहास के उन पृष्ठों को भी पढ़ें, जो दबा दिए गए। 'मैला ढोने' को सिर्फ जातिवाद का परिणाम कह कर छोड़ना एक आधा सत्य है। इसका दूसरा पहलू — मुस्लिम शासकों की भूमिका — भी उतना ही प्रासंगिक और ऐतिहासिक रूप से प्र

माणित है।



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