भूमिका:
21वीं सदी के तीसरे दशक में भारत एक असाधारण कूटनीतिक संतुलन का दौर जी रहा है। एक ओर वैश्विक शक्तियाँ – अमेरिका, रूस, चीन – आपसी संघर्षों में उलझी हैं, वहीं भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभर रहा है जो विकासशील देशों की आवाज बनना चाहता है। इस समग्र प्रयास में यदि भारत कोई मुस्लिम चेहरा विश्वनीति में आगे लाता है – उपराष्ट्रपति, विदेश मंत्री या किसी वैश्विक मंच पर प्रतिनिधि के रूप में – तो यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से गहरे प्रभाव वाला कदम हो सकता है।
1. भारत और मुस्लिम विश्व: ऐतिहासिक संदर्भ
भारत का इस्लामिक दुनिया से रिश्ता केवल धार्मिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक रहा है। मुगलकाल, अरब व्यापार, सूफी परंपरा और 20वीं सदी के भारत-पाक विभाजन ने भारत के मुस्लिम विश्व से संबंधों को जटिल बनाया।
- 1947 के बाद पाकिस्तान ने OIC जैसे मंचों में भारत को अलग-थलग करने की कोशिश की।
- भारत ने हमेशा धर्मनिरपेक्ष नीति अपनाते हुए अरब देशों से रिश्ते बनाए रखे।
- 1990 के दशक में खाड़ी युद्ध और प्रवासी भारतीयों की भूमिका ने भारत की पश्चिम एशिया नीति को नया आकार दिया।
आज भारत के अरब देशों से आर्थिक, ऊर्जा, प्रवासी और रक्षा सहयोग बहुत मज़बूत हैं। इस पृष्ठभूमि में एक मुस्लिम चेहरा यदि भारत का प्रतिनिधित्व करता है, तो यह इस रिश्ते में भावनात्मक सामंजस्य भी जोड़ सकता है।
2. विश्वनीति में चेहरा और प्रतीकवाद का महत्त्व
राजनीति केवल नीति नहीं, उसका प्रस्तुतीकरण भी होती है। अमेरिका में बाराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना हो या Rishi Sunak का ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद पर आना – ये केवल चुनाव नहीं, प्रतीक भी हैं। भारत यदि किसी देशभक्त, प्रगतिशील और वैश्विक दृष्टिकोण वाले मुस्लिम नेता को उच्च पद पर लाता है, तो यह भी वैश्विक स्तर पर एक सशक्त प्रतीक बन सकता है:
- इस्लामोफोबिया के आरोपों को तोड़ने वाला संकेत
- मुस्लिम दुनिया में भारत की सकारात्मक छवि को बल
- चीन और पाकिस्तान के "मुस्लिम विरोधी भारत" नैरेटिव को निष्क्रिय करने का उपाय
3. घरेलू राजनीति और संभावित आपत्तियाँ
भारत में मुस्लिम नेतृत्व को लेकर दो प्रकार की धारणाएँ हैं:
- एक वर्ग इसे तुष्टिकरण मानता है — उन्हें लगता है कि यह कदम वोट बैंक साधने का प्रयास है।
- दूसरा वर्ग इसे आवश्यक समावेशन मानता है — जो भारतीय मुस्लिमों को राष्ट्र के केंद्रीय विमर्श में शामिल देखना चाहता है।
इस परिस्थिति में यदि सरकार या कोई राष्ट्रीय दल किसी मुस्लिम नेता को उच्च संवैधानिक पद पर बैठाता है, तो उसे केवल प्रतीकात्मक नहीं, स्पष्ट राजनीतिक और रणनीतिक संदर्भों में पेश करना होगा। तभी यह समाज में स्वीकार्य होगा।
4. वैश्विक संदर्भ और मुस्लिम चेहरा: रणनीतिक लाभ
(i) OIC और मुस्लिम राष्ट्रों में भारत की स्थिति:
- भारत अभी OIC का सदस्य नहीं है, पर 2019 में सुषमा स्वराज को सम्मानित अतिथि के रूप में बुलाया गया।
- UAE, सऊदी अरब, कुवैत और बहरीन जैसे देशों से भारत के रिश्ते बहुत घनिष्ठ हैं।
- यदि कोई भारतीय मुस्लिम नेता इन देशों से संवाद करे, तो यह सांस्कृतिक और धार्मिक जुड़ाव को भी दर्शाएगा।
(ii) पाकिस्तान और चीन की कूटनीतिक चालबाजियाँ:
- पाकिस्तान हमेशा OIC मंच पर कश्मीर का मुद्दा मुस्लिम भाईचारे के नाम पर उठाता है।
- चीन शिनजियांग में मुसलमानों पर अत्याचार करता है, लेकिन भारत को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करता है।
एक सक्रिय मुस्लिम चेहरा इन दुष्प्रचारों को विफल करने में सहायक हो सकता है।
5. क्या अरिफ मोहम्मद खान या अन्य चेहरों पर विचार संभव?
अरिफ मोहम्मद खान:
- केरल के राज्यपाल और एक प्रबुद्ध, राष्ट्रवादी मुस्लिम चेहरा।
- तीन तलाक, समान नागरिक संहिता, और मुस्लिम सुधार जैसे मुद्दों पर स्पष्ट राय रखते हैं।
- अगर वे उपराष्ट्रपति या विदेश मंत्री बनते हैं तो यह भारत के वैश्विक विमर्श में एक दृढ़ संकेत होगा कि भारत का मुस्लिम नेतृत्व आधुनिक, संवैधानिक और समावेशी है।
अन्य संभावनाएँ:
- सैयद अकबरुद्दीन (पूर्व UN स्थायी प्रतिनिधि)
- शाहनवाज़ हुसैन जैसे बीजेपी से जुड़े चेहरे (हालाँकि उनका राजनीतिक प्रभाव कम है)
- किसी युवा मुस्लिम टेक्नोक्रैट को G20, BRICS जैसे मंचों पर आगे लाना
6. क्या यह सिर्फ प्रतीकवाद बनकर रह जाएगा?
अगर सरकार केवल एक चेहरा आगे कर दे और नीति न बदले, तो यह जल्द ही खोखला प्रतीक बन जाएगा। इसलिए:
- नीति में भी मुस्लिम राष्ट्रों के लिए विशेष आर्थिक सहयोग कार्यक्रम होने चाहिए।
- इंडो-इस्लामिक कल्चर सेंटर को राजनयिक माध्यमों से जोड़ा जाए।
- मुस्लिम बहुल देशों में नियुक्त दूतों में विविधता लाई जाए।
- Hajj नीति, वीज़ा सहयोग और व्यापार को सामरिक बनाना होगा।
7. वैश्विक प्रतिक्रिया क्या हो सकती है?
🌐 मुस्लिम चेहरा और भारत की विश्वनीति: क्या यह रणनीति वैश्विक संतुलन साध सकती है?
✍️ विशेष संपादकीय
🔷 प्रस्तावना: विश्वनीति और चेहरों की कूटनीति
विश्व राजनीति में चेहरे केवल प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि प्रतीक भी होते हैं—संप्रेषण के, संकेतों के, और रणनीतिक संतुलन के। भारत जैसे बहुलतावादी लोकतंत्र में जब कोई उच्च पद पर मुसलमान चेहरा उभरता है, तो उसका केवल आंतरिक संदेश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय प्रभाव भी होता है। उपराष्ट्रपति के रूप में यदि कोई मुस्लिम चेहरा सामने आता है—जैसे कि आरिफ मोहम्मद खान—तो वह केवल संवैधानिक पद नहीं होगा, बल्कि भारत की बदलती वैश्विक रणनीति का संकेतक बन सकता है।
🔷 भारत की वर्तमान वैश्विक स्थिति
भारत वर्तमान में विश्व राजनीति में एक संतुलनकारी शक्ति (Balancing Power) के रूप में उभर रहा है। एक ओर उसका रणनीतिक झुकाव अमेरिका, फ्रांस और जापान जैसे लोकतांत्रिक गुटों की ओर है, वहीं दूसरी ओर वह रूस, ईरान, सऊदी अरब और चीन जैसे विरोधी गुटों से भी संवाद बनाए रखने में सफल रहा है। इस संतुलन को साधना आसान नहीं, विशेषकर तब जब भारत के भीतर बहुसंख्यकवादी छवि को पश्चिमी मीडिया में बार-बार रेखांकित किया जाता है।
ऐसे में एक मुस्लिम चेहरा यदि उपराष्ट्रपति पद पर लाया जाता है, तो यह भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान को विश्व पटल पर पुनर्स्थापित करने का एक सशक्त प्रतीक बन सकता है।
🔷 उपराष्ट्रपति का पद और उसका अंतरराष्ट्रीय महत्त्व
भारत में उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति के अलावा किसी कार्यकारी शक्ति से जुड़ा नहीं होता, लेकिन यह पद नैतिक, कूटनीतिक और वैचारिक दृष्टि से अत्यंत प्रभावी होता है। विश्व यात्राओं, शांति मिशनों, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उपराष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व एक मैत्रीपूर्ण राष्ट्र की छवि निर्मित करता है।
यदि यह चेहरा मुसलमान हो, तो यह निम्नलिखित संदेशों को पुष्ट करता है:
- भारत इस्लामिक वर्ल्ड का शत्रु नहीं है।
- भारत बहुलता और सह-अस्तित्व को महत्व देता है।
- भारत के निर्णय सांप्रदायिकता पर नहीं, रणनीतिक राष्ट्रहित पर आधारित होते हैं।
🔷 संभावित मुस्लिम चेहरों की चर्चा
🔹 आरिफ मोहम्मद खान: सांस्कृतिक सेतु और वैचारिक योद्धा
उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री, कांग्रेस और बाद में भाजपा से जुड़े आरिफ मोहम्मद खान वर्तमान में केरल के राज्यपाल हैं। वे शाहबानो मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के विरुद्ध खड़े होकर महिलाओं के अधिकारों की वकालत कर चुके हैं। उन्होंने तीन तलाक और कट्टरवाद पर खुलकर राय रखी है।
यदि उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया जाता है, तो यह भारत के भीतर उदार, प्रगतिशील मुस्लिम विमर्श को सशक्त करेगा और विश्व मंच पर यह दिखाएगा कि भारत में धर्म के भीतर सुधार का स्थान है।
🔹 मुख्तार अब्बास नकवी / नजमा हेपतुल्ला जैसे चेहरे?
हालांकि नजमा हेपतुल्ला पहले उपसभापति रह चुकी हैं और नकवी भी पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे हैं, लेकिन आरिफ खान की वैचारिक दृढ़ता, कट्टरवाद से संघर्ष और साहित्यिक पृष्ठभूमि उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय चेहरा बनने के लिए अधिक उपयुक्त बनाते हैं।
🔷 वैश्विक मुस्लिम परिप्रेक्ष्य और भारत
🔹 इस्लामिक वर्ल्ड और भारत
ओआईसी (Organisation of Islamic Cooperation) लंबे समय से पाकिस्तान के दबाव में भारत से दूरी बनाए हुए है, लेकिन हाल के वर्षों में भारत और सऊदी अरब, यूएई, ईरान, और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देशों के संबंध सुधरे हैं। भारत वहां निवेश करता है, श्रमिक भेजता है, और ऊर्जा प्राप्त करता है।
🔹 भारत के मुसलमानों की छवि
पश्चिमी मीडिया अक्सर भारत में मुसलमानों की स्थिति को लेकर आलोचनात्मक रहा है। ऐसे में एक सम्मानजनक, संवैधानिक मुस्लिम चेहरा अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं को तार्किक उत्तर दे सकता है।
🔷 भू-राजनीतिक लाभ
🔹 मध्य एशिया और खाड़ी क्षेत्र से संबंध
भारत यदि आरिफ मोहम्मद खान जैसे चेहरे को प्रस्तुत करता है, तो यह उन देशों में जहाँ पर इस्लामी नेतृत्व प्रतिष्ठित है, वहाँ सांस्कृतिक भाईचारे का संदेश देगा। ईरान, तुर्की, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों में भारत की एक सॉफ्ट पावर की छवि बनेगी।
🔹 अफगानिस्तान, ईरान और इराक में प्रभाव
भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक लचीलेपन को इन देशों में पसंद किया जाता है। एक उदार मुसलमान उपराष्ट्रपति भारत की सांस्कृतिक मध्यस्थता को और मजबूत कर सकता है।
🔷 आंतरिक संदेश: मुस्लिम समाज को सकारात्मक हस्तक्षेप
एक ओर मुस्लिम समाज को यह दिखेगा कि भारत में धार्मिक पहचान के बावजूद प्रगतिशील मुसलमानों को सम्मान मिलता है। दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होगा कि राजनीतिक भागीदारी के लिए कट्टरता नहीं, उदारता और संवाद की आवश्यकता होती है।
🔹 कट्टरवादियों को उत्तर
आरिफ मोहम्मद खान जैसे चेहरे उन धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए वैचारिक चुनौती होंगे जो मुस्लिम समाज को सुधार और संवैधानिकता के विरुद्ध उकसाते हैं।
🔷 विपक्ष और मुस्लिम राजनीति
हालांकि विपक्षी दलों को यह तर्क मिल सकता है कि भाजपा केवल प्रतीकात्मक राजनीति कर रही है, लेकिन अगर यह चयन वास्तविक वैचारिक साझेदारी पर आधारित होता है तो आलोचना निष्फल सिद्ध होगी।
🔷 क्या यह सब “मुस्लिम तुष्टीकरण” होगा?
यह एक स्वाभाविक प्रश्न है। परंतु इसमें मूल अंतर यह है:
- तुष्टीकरण तब होता है जब केवल धर्म के आधार पर लाभ दिया जाता है।
- लेकिन यदि कोई व्यक्ति विचार, संवाद, उदारता और सुधार का पक्षधर है, तो यह राष्ट्रहित में समावेशन कहलाएगा।
🔷 विदेश नीति में सांकेतिक शक्ति
कई देशों ने चेहरों से नीति संदेश भेजे हैं:
- अमेरिका: बराक ओबामा का उदय नस्लीय संवाद का प्रतीक बना।
- ब्रिटेन: ऋषि सुनक का नेतृत्व वैश्विक भारतीय पहचान को दर्शाता है।
- सऊदी अरब और UAE: अल्पसंख्यकों को मंच देकर सॉफ्ट पावर बढ़ाई।
भारत को भी अपने वैश्विक नीति संदेशों को चेहरों के माध्यम से परिपक्व बनाना चाहिए।
🔷 विपक्षी रणनीति: मुस्लिम चेहरे के साथ कौन आएगा?
विपक्ष यदि किसी वैचारिक रूप से सशक्त मुस्लिम चेहरे को खड़ा करता है, जैसे कि सैयद सलीम या फैज अहमद किदवई जैसे नाम (राजनीतिक/सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में), तो यह एक वैकल्पिक विमर्श होगा। लेकिन भाजपा या NDA पहले पहल कर चुके तो इसका नैतिक लाभ उन्हें ही मिलेगा।
🔷 भविष्य दृष्टि: यह केवल चेहरा नहीं, एक विचार है
आरिफ मोहम्मद खान जैसे व्यक्ति को आगे लाना केवल मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि भारत की विश्व नीति में धर्मनिरपेक्षता, संवाद, बहुलता और सुधारवाद की साझेदारी का उद्घोष होगा।
🔷 निष्कर्ष: चेहरा ही विचार है
भारत की विश्वनीति में यदि आज कोई सबसे बड़ी आवश्यकता है तो वह है “नैरेटिव” निर्माण की। वैश्विक शक्तियाँ भारत को केवल शक्ति से नहीं, उसके विचारों से भी आँकती हैं।
आरिफ मोहम्मद खान जैसे चेहरे—
- विचार की शक्ति हैं,
- सुधार की प्रेरणा हैं,
- और संवाद की संजीवनी हैं।
भारत यदि इस दिशा में बढ़ता है, तो वह विश्व मंच पर केवल आर्थिक शक्ति नहीं, वैचारिक महाशक्ति भी बन सकता है।
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