भारत की विश्वनीति का त्रिकोणीय छल

 🌍 झांसा सबने दिया, साथ किसी ने नहीं दिया



🌟 प्रस्तावना:


भारत की विदेश नीति आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ उसे बार-बार अपने तथाकथित रणनीतिक साझेदारों की ओर देखना पड़ता है — कुछ आशा में, कुछ विवशता में। अमेरिका, रूस और चीन जैसे महाशक्तियों के साथ दशकों से चले आ रहे रिश्ते अब नए समीकरणों में उलझे हैं। भारत को हर मंच पर सहयोग का आश्वासन मिला, लेकिन जब भी समय आया, झांसा मिला, साथ नहीं। यह लेख इसी त्रिकोणीय छल को गहराई से समझने का प्रयास है — विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक और चिंतनशील दृष्टिकोण के साथ।


🇺🇸 अमेरिका: लोकतंत्र का साझेदार या रणनीतिक व्यापारी?


भारत-अमेरिका संबंधों में पिछले दो दशकों में जितना संवाद हुआ, उतना शायद किसी और देश से नहीं। Indo-US nuclear deal, QUAD की स्थापना, Indo-Pacific की अवधारणा — सब भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करने की दिशा में रखे गए कदम थे। परंतु नीतिगत गहराई से देखें तो इनका उद्देश्य भारत को चीन के विरुद्ध एक मोहरा बनाना अधिक था, न कि उसे बराबरी का रणनीतिक साझेदार बनाना।


भारत को आज तक UNSC में स्थायी सदस्यता के लिए अमेरिका का ठोस समर्थन नहीं मिला। रूस से S-400 खरीदने पर भारत को CAATSA जैसे प्रतिबंधों की धमकी दी जाती है, जबकि तुर्की के खिलाफ उसी कानून को अमेरिका ने लागू किया। GSP (Generalized System of Preferences) से भारत को बाहर करना, वीज़ा मुद्दे, और तकनीकी डोमेन में असहयोग — ये सभी दर्शाते हैं कि अमेरिका के साथ भारत का संबंध मूल्य आधारित नहीं, परिस्थितिजन्य है।


> कूटनीतिक रिश्ते अगर बराबरी के न हों, तो वे न साझेदारी कहलाते हैं, न मित्रता।




🇷🇺 रूस: अतीत की छाया, वर्तमान की अनिश्चितता


भारत और रूस के संबंध ऐतिहासिक रूप से भावनात्मक रहे हैं। शीत युद्ध में जब पश्चिमी देश पाकिस्तान के साथ थे, रूस (तब USSR) ने भारत को सैन्य, कूटनीतिक और तकनीकी समर्थन दिया। 1971 के युद्ध में रूस का रुख निर्णायक था। लेकिन वह अतीत था।


आज का रूस चीन का कनिष्ठ भागीदार बन चुका है। यूक्रेन युद्ध के बाद उसकी आर्थिक और सामरिक निर्भरता चीन पर बढ़ गई है, और पाकिस्तान से भी उसके संबंध रणनीतिक रूप से गहरे हुए हैं — रक्षा सौदों से लेकर ऊर्जा सहयोग तक। भारत के लिए यह संकेत है कि जिस रूस को वह मित्र मानता है, वह अब केवल वाणिज्यिक समझौतों के दायरे में रह गया है।


भारत ने रूस से सस्ते तेल खरीद कर वर्तमान में कूटनीतिक चतुराई दिखाई है, लेकिन इससे दीर्घकालिक रणनीतिक गारंटी नहीं मिलती। संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर रूस भारत के पक्ष में खड़ा रहा है, पर अब यह समर्थन चीन के हितों से टकराएगा तो रूस किसके साथ खड़ा होगा — यह प्रश्न अनुत्तरित है।


🇨🇳 चीन: शांत पड़ोसी या भूख से भरा ड्रैगन?


भारत और चीन के संबंध शायद सबसे जटिल हैं। एक ओर BRICS, SCO, RCEP जैसे बहुपक्षीय मंचों में दोनों देशों की साझेदारी है, दूसरी ओर सीमाओं पर युद्धोन्मादी वातावरण। गलवान की घटना, अरुणाचल में बुनियादी ढाँचे पर विरोध, डोकलाम में घुसपैठ — चीन बार-बार भारत की संप्रभुता को चुनौती देता है, और भारत इसे बयानबाज़ी तक सीमित रखता है।


चीन का रणनीतिक उद्देश्य स्पष्ट है: भारत को सीमित करना, पड़ोस में घेरना, और आर्थिक व तकनीकी क्षेत्र में पिछाड़ना। CPEC से लेकर श्रीलंका के हम्बनटोटा पोर्ट और नेपाल, मालदीव में निवेश तक — चीन भारत को दक्षिण एशिया में हाशिए पर धकेलने की एक सुनियोजित रणनीति पर काम कर रहा है।


भारत का प्रतिक्रिया स्वरूप धीमा, रक्षात्मक और सीमित दिखाई देता है। यदि चीन जैसी आक्रामक नीति के सामने भारत की नीति केवल "Status Quo" बनाए रखने तक सीमित रहेगी, तो भारत कभी क्षेत्रीय शक्ति के दायरे से बाहर नहीं निकल पाएगा।


🌐 ग्लोबल साउथ: नेतृत्व या आश्रय?


जब भारत पश्चिमी महाशक्तियों से निराश होता है, तब वह “Global South” की ओर मुड़ता है — ब्रिक्स, आईबीएसए, अफ्रीकी राष्ट्र, ASEAN आदि की ओर। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या भारत इन देशों का वास्तविक नेता है या बस एक प्रवक्ता?


ब्रिक्स में चीन और रूस का वर्चस्व है, SAARC मृतप्राय है, और ASEAN देशों में भी भारत की उपस्थिति केवल सांस्कृतिक है, रणनीतिक नहीं। अफ्रीकी देशों में भारत की स्वास्थ्य और शिक्षा नीति सराहनीय रही है, लेकिन चीन की तरह बुनियादी ढाँचे, निवेश और ऋण नीति पर भारत पिछड़ता जा रहा है।


भारत यदि ग्लोबल साउथ में नेतृत्व करना चाहता है तो उसे "आर्थिक शक्ति" और "सामरिक आत्मनिर्भरता" का प्रदर्शन करना होगा — भाषणों और सभाओं से आगे बढ़कर ज़मीन पर नीति लानी होगी।


🏭 संसाधन-निर्भर विदेश नीति में भारत की सीमाएँ


भारत की विदेश नीति का एक मौन और अक्सर अनदेखा पहलू है — उसकी प्राकृतिक संसाधनों, खनिज उपलब्धता और औद्योगिक उत्पादन क्षमता में पिछड़ापन। जब कोई देश वैश्विक राजनीति में नेतृत्व का दावा करता है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह:


ऊर्जा निर्यातक हो (जैसे रूस, सऊदी अरब),


औद्योगिक आपूर्ति केंद्र हो (जैसे चीन),


प्रौद्योगिकी या सेवा शक्ति हो (जैसे अमेरिका या जर्मनी)।



लेकिन भारत इनमें से किसी भी श्रेणी में निर्णायक रूप से नहीं आता।


खनिज संसाधनों की स्थिति:


भारत में उच्च गुणवत्ता वाले लोहा, बॉक्साइट, लिथियम, कोबाल्ट जैसे रणनीतिक खनिजों की कमी है।


ऊर्जा संसाधनों में भारत कोयला-निर्भर है, जबकि तेल और गैस के लिए विदेशों पर निर्भर है।


रेयर अर्थ मेटल्स, जो आधुनिक तकनीकी हथियारों और इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए जरूरी हैं, भारत के पास बहुत सीमित हैं — जबकि चीन के पास इसका लगभग 60% वैश्विक नियंत्रण है।



औद्योगिक विकास की गति:


उद्योग GDP का मात्र ~16-17% हिस्सा है, जबकि चीन में यह 30% से अधिक है।


“मेक इन इंडिया” जैसे अभियानों के बावजूद भारत में विनिर्माण क्षेत्र पर्याप्त रोजगार या निर्यात पैदा नहीं कर सका।


डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग में आत्मनिर्भरता आज भी शुरुआती दौर में है, और रक्षा उपकरणों का भारी आयात होता है।



🔍 इस संसाधन-आधारित कमजोरी का विदेश नीति पर प्रभाव:


1. तेल और गैस की निर्भरता भारत को खाड़ी देशों और रूस से मजबूरी में सौदे करने के लिए विवश करती है।



2. उद्योग के कमजोर आधार के कारण भारत अपनी शर्तों पर रणनीतिक साझेदारी नहीं कर सकता। अधिकांश वैश्विक साझेदार भारत को बाजार समझते हैं, भागीदार नहीं।



3. खनिज संसाधनों की कमी भारत को अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की खदानों तक रणनीतिक पहुँच बनाने में धीमा बनाती है।




✅ समाधान: संसाधन-केंद्रित विदेश नीति और रणनीतिक औद्योगिकरण


यदि भारत को वैश्विक नेतृत्व में स्थान बनाना है, तो उसे चाहिए:


आक्रामक खनिज नीति: लिथियम, कोबाल्ट, टंगस्टन जैसे रणनीतिक खनिजों की खोज और आयात-सुरक्षा रणनीति विकसित करना।


विदेशों में खनिज अधिकार सुरक्षित करना: विशेष रूप से अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में।


औद्योगिक नीतियों को रणनीतिक उद्देश्य से जोड़ना: विशेष रूप से रक्षा, सेमीकंडक्टर, और ऊर्जा उपकरणों में।


आर्थिक कूटनीति को प्राथमिकता देना, जहां भारत केवल बाज़ार नहीं, आपूर्ति केंद्र बन सके।



🧭 विदेश नीति में आत्मनिर्भरता की आवश्यकता


भारत की विदेश नीति में आत्मनिर्भरता का मूल कारण यह नहीं कि वह स्वभाव से तटस्थ या अहंकारी है, बल्कि यह कि —


> भारत के पास संसाधन सीमित हैं, और उसकी नीति को विवशता नहीं बनना चाहिए।




भारत ने अमेरिका से सहयोग की अपेक्षा की, रूस से मित्रता की विरासत को आगे बढ़ाया, चीन से शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की आशा की — पर तीनों ने या तो धोखा दिया, या मौन साध लिया।


भारत को अब आसक्ति नहीं, आत्म-निर्भर कूटनीति की ओर बढ़ना होगा। उसे अब तय करना होगा कि “किसे देखें?” से आगे बढ़कर “खुद को देखें, खुद बनाएं” की दिशा में कदम बढ़ाए। तभी वह "झांसे" से निकलकर "विश्व नेतृत्व"

 की ओर बढ़ सकेगा।


> जिस देश के पास अपने संसाधन नहीं होते, वह दूसरों के संसाधनों से नीति नहीं बना सकता।




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