एक कश्मीरी मुसलमान चेहरा, जो दे सकता है राजनीति को नई दिशा
🔷 भूमिका: नई दिल्ली की कुर्सी, नई सोच का संकेत?
2025 की भारतीय राजनीति एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है, जहाँ चुनावी रणनीति, सामाजिक समरसता और वैश्विक कूटनीति – तीनों एक-दूसरे से टकरा नहीं, बल्कि पूरक बनती दिख रही हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के संभावित इस्तीफे या अन्य बदलाव की चर्चा के बीच एक नाम उभरता है — डॉ. फारूक अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता और NDA के पूर्व सहयोगी।
क्या यह मुमकिन है कि एक कश्मीरी मुस्लिम चेहरा भारत का अगला उपराष्ट्रपति बने? यह सवाल महज एक पद की राजनीति नहीं है, यह भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान, कश्मीर नीति, और वैश्विक संदेश का सवाल भी है।
🔷 1. फारूक अब्दुल्ला: अनुभव, संतुलन और प्रतीकात्मकता का नाम
डॉ. फारूक अब्दुल्ला तीन बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और एक अनुभवी सांसद भी। वह न केवल कश्मीरी राजनीति का सबसे प्रमुख चेहरा हैं, बल्कि एक उदारवादी, राष्ट्रवादी मुसलमान नेता के तौर पर भी जाने जाते हैं।
वे पहले भी NDA का समर्थन कर चुके हैं।
भाजपा और पीडीपी ने जम्मू-कश्मीर में सरकार चला कर मुस्लिम बहुल राज्य में राजनीतिक लचीलापन दिखाया है।
फारूक का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनना बीजेपी के लिए "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद + समावेशी राजनीति" के मेल का उदाहरण बन सकता है।
🔷 2. भाजपा और मुस्लिम चेहरा: नई राजनीतिक परिघटना
भाजपा पर अक्सर मुस्लिम विरोधी राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि:
रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू जैसे चेहरों को सामने रखकर भाजपा ने "सांकेतिक समावेशिता" का संदेश पहले ही दिया है।
अब यदि फारूक अब्दुल्ला जैसे "पारंपरिक लेकिन स्वीकार्य मुस्लिम नेता" को उपराष्ट्रपति बनाया जाता है, तो यह एक क्रांतिकारी संदेश होगा कि मुस्लिम समुदाय के लिए भी दरवाजे खुले हैं — बशर्ते वह भारत की मूलधारा में रहें।
🔷 3. कश्मीर से राष्ट्रवाद का गठजोड़: फारूक का चयन क्यों महत्वपूर्ण होगा
भारत सरकार की कश्मीर नीति 2019 में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कठोर मानी गई है। ऐसे में फारूक अब्दुल्ला का चयन निम्न संकेत दे सकता है:
भारत कश्मीर के साथ "संघीय सहमति" की ओर बढ़ रहा है।
फारूक जैसे संविधानवादी मुसलमान को उच्च पद देकर सरकार यह संकेत दे सकती है कि धारा 370 के बाद "राजनीतिक पुनर्संयोजन" का दौर शुरू हो चुका है।
यह कश्मीरी युवाओं के लिए भी एक प्रेरणा हो सकती है कि संविधान के भीतर रहकर भी परिवर्तनकारी भूमिका निभाई जा सकती है।
🔷 4. वैश्विक कूटनीति में संदेश: एक मुसलमान उपराष्ट्रपति भारत की छवि कैसे बदलेगा
दुनिया भर में इस्लाम और आतंकवाद को लेकर बहस के बीच भारत यदि एक उदारवादी, अनुभवी मुस्लिम नेता को उपराष्ट्रपति बनाता है, तो यह विश्व मंच पर बड़ा संदेश होगा:
ओआईसी (इस्लामिक देशों का संगठन) के लिए यह एक उत्तर हो सकता है कि भारत में मुसलमानों की स्थिति सम्मानजनक है।
अमेरिका, यूरोप और अरब देशों में भारत की "बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र" की छवि और सशक्त होगी।
यह पाकिस्तान के उस नैरेटिव को भी कमजोर करेगा कि भारत मुस्लिम विरोधी देश है।
🔷 5. विपक्ष की स्थिति: विकल्प या विरोधाभास?
विपक्ष यदि इस नाम का विरोध करता है, तो वह ऐसे नेता का विरोध करेगा जो न केवल उनकी पुरानी राजनीति का हिस्सा रहे हैं, बल्कि मुस्लिम समुदाय में लोकप्रिय भी हैं।
क्या कांग्रेस या विपक्ष फारूक अब्दुल्ला जैसे व्यक्ति का विरोध कर पाएगा, जब वह खुद उन्हें "सेक्युलर" और "संविधानवादी" मानता रहा है
अगर विपक्ष कोई और मुस्लिम चेहरा लाता है, तो वह उतना स्वीकार्य और अनुभवयुक्त नहीं होगा।
🔷 6. संभावनाएँ और बाधाएँ: क्या होगा विरोध का आधार?
हालाँकि कुछ चुनौतियाँ होंगी:
फारूक अब्दुल्ला की उम्र (87 वर्ष) को लेकर चिंता उठ सकती है।
उन्हें कई बार पाकिस्तान के लिए "सहानुभूति दिखाने वाले बयान" देने का आरोप भी लगा है।
भाजपा का कोर वोटबैंक ऐसे चयन से असहज हो सकता है — लेकिन राजनीति केवल वोटबैंक नहीं, रणनीतिक संकेतों का खेल भी है।
🔷 7. नायडू, धनखड़ या फारूक: अगला उपराष्ट्रपति कौन?
धनखड़ का इस्तीफा या अन्य पद पर स्थानांतरण यदि होता है, तो भाजपा के सामने कुछ प्रमुख विकल्प हो सकते हैं:
नाम समुदाय क्षेत्रीयता राजनीतिक संकेत
एम. वेंकैया नायडू हिंदू आंध्र/दक्षिण भारत अनुभव व संतुलन
फारूक अब्दुल्ला मुस्लिम कश्मीर/उत्तर भारत समावेशिता व वैश्विक संदेश
कोई नया चेहरा TBD TBD चुनावी रणनीति पर आधारित
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🔷 8. निष्कर्ष: असंभव कुछ नहीं – यही तो है राजनीति
2014 के बाद नरेंद्र मोदी की राजनीति "असंभव को संभव में बदलने की कला" रही है। चाहे दलित राष्ट्रपति हो, आदिवासी महिला राष्ट्रपति हो, या आर्टिकल 370 को हटाना हो — ये सब संकेत हैं कि भाजपा जब ठान ले, तो "राजनीतिक प्रतिमान" बदल सकती है।
यदि फारूक अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति बनाया जाता है, तो यह केवल एक पद की नियुक्ति नहीं होगी — यह एक नव-भारत की परिपक्व राजनीति का प्रतीक होगी। एक ऐसी राजनीति, जो संविधान, समावेशिता और संकेतों के संतुलन से संचालित होती है।
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