फारुख अब्दुल्ला ! भाजपा की विश्वनीति का नया पैंतरा या नेहरूवादी प्रतीक की वापसी"


1. प्रस्तावना: एक चेहरा, अनेक संदेश 

फारुख अब्दुल्ला — कश्मीरी, मुसलमान, अनुभवी, और भारत के लोकतंत्र का पुराना चेहरा। और अब, संभावित उपराष्ट्रपति? क्या यह सिर्फ एक राजनीतिक संकेत है, या भारत की वैश्विक नीति में एक चतुर कदम?

जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के संभावित इस्तीफे की चर्चा चल रही है, और विश्व राजनीति भारत से एक "समावेशी, शांतिपूर्ण, और संतुलित" नेतृत्व की अपेक्षा कर रही है, ऐसे में फारुख अब्दुल्ला जैसे कश्मीरी मुस्लिम नेता का नाम चर्चा में आना अप्रत्याशित नहीं।

नेहरूवादी युग में जिस प्रकार प्रतीकात्मक राजनीति से अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को साधा जाता था — जैसे अबुल कलाम आज़ाद को शिक्षा मंत्री बनाना, या ज़ाकिर हुसैन को राष्ट्रपति — उसी प्रकार भाजपा अगर अब फारुख अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति बनाती है, तो यह संकेत देगा कि भारत मुसलमानों और कश्मीर को हाशिये पर नहीं, सत्ता-केन्द्र में देखता है।

2. भाजपा और फारुख अब्दुल्ला: विरोध या समीकरण? 

भारतीय राजनीति में "स्थायी दुश्मन" जैसी कोई चीज़ नहीं होती। फारुख अब्दुल्ला, जो कभी कांग्रेस के सहयोगी रहे, जिन्होंने अक्सर भाजपा की आलोचना की, खुद एनडीए के हिस्से भी रह चुके हैं। उनके बेटे उमर अब्दुल्ला अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री भी रहे।

भाजपा की जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बना चुकी है, तो नेशनल कॉन्फ्रेंस को साथ लाना असंभव नहीं। ये वही भाजपा है, जो शिंदे, पासवान, नायडू, ममता जैसे कई असहमति वाले नेताओं को सत्ता में साझेदार बना चुकी है। फारुख का अनुभव, संतुलन और वैश्विक पहचान उन्हें एक ‘प्रभावशाली लेकिन गैर-खतरनाक’ विकल्प बनाती है।

3. कश्मीर से संदेश: एक प्रतीकात्मक राजनीति 

कश्मीर भारत के लिए सिर्फ एक राज्य नहीं, एक अंतरराष्ट्रीय विमर्श का केंद्र है। फारुख अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति बनाना इस विमर्श को पूरी तरह मोड़ सकता है।

यह कदम चीन, पाकिस्तान और ओआईसी को यह बताने का तरीका होगा कि भारत कश्मीरी मुसलमानों को नकार नहीं रहा, बल्कि उन्हें सत्ता में भागीदार बना रहा है। यह कदम संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर भारत की छवि को और मजबूत करेगा।

यह कश्मीरी युवाओं के लिए एक सकारात्मक संदेश भी हो सकता है — कि राजनीति हिंसा नहीं, लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भी हासिल की जा सकती है।

4. अंतरराष्ट्रीय कूटनीति: मुसलमान चेहरे की भूमिका 

आज विश्व राजनीति इस्लामोफोबिया, चरमपंथ और अरब-इस्राइल संघर्ष से जूझ रही है। भारत यदि एक कश्मीरी मुस्लिम को उपराष्ट्रपति बनाता है, तो वह मुस्लिम देशों को यह संकेत दे सकता है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित और सम्मानित हैं।

यह कदम अमेरिका, ईरान, सऊदी अरब, इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम बहुल या हितधर्मी देशों के साथ संबंधों को मजबूत करेगा।

भारत, जो आज ब्रिक्स, SCO, G20, और संयुक्त राष्ट्र में एक संतुलनकारी शक्ति की भूमिका में है, उसे ऐसे प्रतीकात्मक कदमों से अपनी साख मजबूत करनी होगी।

5. विपक्ष और धर्मनिरपेक्षता की चुनौती 

फारुख अब्दुल्ला को अगर भाजपा समर्थन देती है तो विपक्ष असहज होगा। एक ओर, उन्हें एक मुस्लिम चेहरे को नकारने में हिचक होगी, दूसरी ओर वे भाजपा के ‘धर्मनिरपेक्षता’ के दावे को चुनौती देना चाहेंगे।

लेकिन यहीं भाजपा एक मनोवैज्ञानिक चाल खेल सकती है — उसने अपने कोर वोट बैंक को यह दिखाया कि कश्मीर शांत है, और मुस्लिमों को सत्ता में स्थान देकर वह दुनिया को यह बता रही है कि 'हमें अपने मुसलमानों पर गर्व है, पर आतंकवाद पर नहीं।'

6. नेहरूवाद की वापसी या नव-विकल्पवाद?

क्या यह सब कुछ भाजपा की उस आलोचना के विपरीत नहीं है जो वह वर्षों से कांग्रेस के "प्रतीकवाद" पर करती रही है? नेहरू युग की तरह प्रतीकों के ज़रिए राष्ट्रीय एकता और वैश्विक सद्भाव का संदेश देना क्या भाजपा की वैचारिक नीति से मेल खाता है?

यहां भाजपा ‘नेहरूवाद की वापसी’ नहीं बल्कि ‘प्रतीकात्मक नव-विकल्पवाद’ अपना सकती है — जहाँ प्रतीक सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, बल्कि रणनीतिक हथियार होंगे।

मसलन:

रमज़ान में उपराष्ट्रपति निवास पर रोज़ा इफ़्तार

कश्मीर में उपराष्ट्रपति के स्वागत समारोह

OIC को संदेश: भारत का मुसलमान विश्वसनीय है

7. धर्मनिरपेक्षता 2.0 और भाजपा की रणनीति 

धर्मनिरपेक्षता अब चुनावी घोषणा-पत्र का विषय नहीं रही, बल्कि वैश्विक व्याकरण का हिस्सा बन गई है। मोदी सरकार इस ‘धर्मनिरपेक्षता 2.0’ का उपयोग कर रही है — जिसमें ‘सबका साथ, सबका विकास’ एक सांस्कृतिक सॉफ्ट पावर टूल बन गया है।

फारुख अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति बना कर भाजपा न केवल अल्पसंख्यकों के प्रति अपना दृष्टिकोण नरम दिखा सकती है, बल्कि कट्टरपंथियों के प्रचार को भी ध्वस्त कर सकती है।

8. निष्कर्ष: एक चेहरा, एक रणनीति, एक नया भारत 

भारत बदल रहा है — और उसका चेहरा भी। फारुख अब्दुल्ला जैसे अनुभवी नेता को उपराष्ट्रपति पद पर लाकर भारत यह संदेश दे सकता है कि:

भारत में मुसलमान सिर्फ नागरिक नहीं, भागीदार हैं।

कश्मीर सिर्फ एक राज्य नहीं, भारत के लोकतंत्र की प्रयोगशाला है।

और विश्व समुदाय के लिए भारत का मुसलमान चरमपंथ से दूर, लोकतंत्र के साथ है।

यह एक चेहरा नहीं, एक रणनीति होगी। नेहरू की तरह प्रतीकात्मकता, लेकिन मोदी की तरह शक्ति-राजनीति के साथ।

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