मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन (लगभग 12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक) के दौरान भंगी समुदाय, जिन्हें आज सफाईकर्मी या वाल्मीकि समुदाय के नाम से भी जाना जाता है, की स्थिति अत्यंत ही दयनीय, उपेक्षित और अपमानजनक बनी रही। भंगियों को भारतीय वर्ण व्यवस्था में सबसे निम्न, अछूत और अपवित्र समझा गया, और मुस्लिम शासनकाल में भी उनकी यह सामाजिक स्थिति बरकरार रही, बल्कि कुछ पहलुओं में और अधिक सख्त और कठोर रूप ले ली।
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1. सामाजिक स्थिति
भंगियों को समाज में अछूत माना जाता था। उन्हें नगरों और कस्बों की सीमा से बाहर बसने के लिए विवश किया गया। वे मुख्यतः मल-मूत्र सफाई, मृत पशुओं को उठाने, चमड़ा निकालने और कूड़ा-कचरा हटाने जैसे कार्यों में संलग्न थे। इस समाज को न तो धार्मिक स्वतंत्रता थी, न ही सामाजिक सम्मान। वे मंदिरों, मस्जिदों, सार्वजनिक कुओं, सरोवरों और बाजारों से दूर रखे जाते थे।
मुस्लिम शासन में धार्मिक परिवर्तन के बावजूद भंगियों की स्थिति में कोई बुनियादी सुधार नहीं हुआ। कुछ भंगियों को मुसलमान बनाने के प्रयास जरूर हुए, और उनमें से कुछ ने इस्लाम अपना भी लिया, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। वे "मेहतर" या "हलालखोर" कहे गए, पर सामाजिक अपवर्जन और जातीय घृणा यथावत बनी रही।
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2. आर्थिक स्थिति
भंगियों को मजदूरी की जगह अनाज या वस्त्र दिए जाते थे, वो भी बहुत ही सीमित मात्रा में। वे प्रायः "बेगार" (बिना वेतन काम) करने को बाध्य थे। नगरपालिकाओं या सरायों में कार्यरत सफाईकर्मियों को बहुत कम पारिश्रमिक मिलता था और उनकी मजदूरी कभी नियमित नहीं होती थी।
कुछ मुस्लिम शासकों ने नगर व्यवस्था बनाए रखने के लिए सफाईकर्मियों की जरूरत समझी और उन्हें नियुक्त भी किया, लेकिन उनके प्रति कोई सहानुभूति या सुधारवादी रवैया नहीं अपनाया। उन्हें नौकरों और गुलामों की तरह देखा गया।
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3. धार्मिक और सांस्कृतिक बहिष्कार
भंगी समुदाय को न केवल हिंदू बल्कि मुस्लिम धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से भी दूर रखा गया। वे मस्जिदों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। यद्यपि इस्लाम जातिवाद को मान्यता नहीं देता, फिर भी भारतीय मुस्लिम समाज ने हिन्दू वर्ण व्यवस्था से प्रभावित होकर जातीय भेदभाव जारी रखा।
इस काल में भंगी समुदाय के कुछ लोग सूफी दरगाहों की सेवा में जुड़े जरूर, लेकिन उन्हें वहां भी नीचे दर्जे का सेवक ही समझा गया। न तो उन्हें ज्ञान का अवसर मिला, न सामाजिक न्याय का।
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4. राजनीतिक उपेक्षा
भंगियों को शासन तंत्र में कोई स्थान नहीं मिला। न तो वे सेना में भर्ती किए गए, न किसी प्रशासनिक पद पर। वे केवल नगरीय सफाई, मृत पशुओं का निष्कासन, दरबारों की साफ-सफाई जैसे तुच्छ कार्यों तक सीमित रहे। जब दिल्ली सल्तनत या मुगल शासन में नगरों का विस्तार हुआ, तो सफाईकर्मियों की मांग तो बढ़ी, पर उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ।
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5. स्त्रियों की स्थिति
भंगी महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा पीड़ादायक थी। वे न केवल सफाई कार्यों में संलग्न थीं, बल्कि अक्सर यौन शोषण की शिकार भी बनती थीं, विशेषकर अमीरों और अधिकारियों द्वारा। उनके प्रति कोई सुरक्षा या न्यायिक व्यवस्था मौजूद नहीं थी।
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6. परिवर्तन या विरोध के प्रयास
मध्यकाल में कुछ सामाजिक सुधार आंदोलनों जैसे भक्ति आंदोलन ने अछूतों को मानवीय दृष्टि से देखने का प्रयास किया। कबीर, रैदास जैसे संतों ने जातिवाद की आलोचना की, लेकिन मुस्लिम सत्ता द्वारा ऐसे आंदोलनों को न प्रोत्साहन मिला, न समर्थन। मुस्लिम राजाओं ने कभी भी दलितों या भंगियों की दशा सुधारने की कोशिश नहीं की।
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7. मुस्लिम शासन और जाति व्यवस्था का अंतर्विरोध
यह एक ऐतिहासिक विडंबना रही कि इस्लाम जैसे समानता आधारित धर्म की सत्ता में भी भारतीय समाज की जातीय संरचना यथावत बनी रही। मुस्लिम शासकों ने हिंदू समाज के जातीय ढांचे को तोड़ने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की। वे खुद "अशरफ" (श्रेष्ठ) और "अर्जल" (निम्न) मुस्लिम वर्गों में बंटे थे। भंगी मुस्लिमों को भी अर्जल कहकर हाशिए पर रखा गया।
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निष्कर्ष:
मुस्लिम शासनकाल में भंगी समुदाय की स्थिति में कोई ठोस सुधार नहीं हुआ। वे पहले की तरह ही अछूत, दरिद्र, सामाजिक रूप से बहिष्कृत और आर्थिक रूप से शोषित बने रहे। इस काल में उनके जीवन में जो थोड़ी-बहुत स्थिरता आई, वह केवल सफाई व्यवस्था की जरूरतों के कारण थी, न कि किसी मानवीय या सुधारवादी दृष्टिकोण के चलते।
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