भारतीय राजनीति में विदेशी पोपट राहुल गांधी



ऑपरेशन सिंदूर के बाद की बयानबाज़ी और भारतविरोधी वैश्विक नैरेटिव की प्रतिध्वनि

भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रमाण यह है कि यहाँ हर विचारधारा को स्थान मिला है। लेकिन जब कोई नेता बार-बार देश की संस्कृति, परंपरा और सुरक्षा से जुड़ी बातों पर ऐसी भाषा बोलता है जो अपने नहीं, दूसरों के एजेंडे को आगे बढ़ाती है, तो प्रश्न उठता है — क्या यह मात्र ‘राजनीति’ है, या इसके पीछे कोई गहरा विमर्श है?

राहुल गांधी के हालिया बयानों को जब ऑपरेशन सिंदूर, भारत की आंतरिक राजनीति, सीमावर्ती संकट, और वैश्विक रणनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, तो यह स्पष्ट होता है कि वे अनजाने में ही सही, भारत के विरोधियों — पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के वामपंथी-प्रेरित विमर्श — के नैरेटिव को दोहरा रहे हैं।


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1. ऑपरेशन सिंदूर: भारत की सांस्कृतिक अस्मिता पर हमला?

2024 में जब भाजपा की महिला नेताओं और समर्थकों ने "सिंदूर, चूड़ी, बिंदी और साड़ी" को भारतीय नारीत्व और राष्ट्रप्रेम के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया, तो यह एक सशक्त सांस्कृतिक बयान था। इसके जवाब में राहुल गांधी का यह कहना कि "यह दिखावा है… ये अवॉरेशन सिंदूर है" — न केवल राजनीतिक तौर पर असंवेदनशील था, बल्कि यह उन करोड़ों महिलाओं के प्रति भी अपमानजनक था जो इन प्रतीकों को श्रद्धा, प्रेम और भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानती हैं।

इस बयान से ऐसा लगा जैसे राहुल गांधी जानबूझकर भारत की सांस्कृतिक चेतना से टकराव चाहते हैं — और यह टकराव वैचारिक नहीं, मानसिक रूप से ‘पश्चिम प्रेरित’ दिखता है।


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2. चीन-पाक नैरेटिव की प्रतिध्वनि

राहुल गांधी का बार-बार यह कहना कि "भारत में लोकतंत्र मर चुका है", "भारत अब तानाशाही की तरफ बढ़ रहा है", "माइनॉरिटीज़ को डराया जा रहा है" — ये बातें पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र में दिए गए वक्तव्यों से मेल खाती हैं।

चीन, पाकिस्तान और यहाँ तक कि कुछ वामपंथी अमेरिकी संस्थान भी यही नैरेटिव गढ़ते हैं — कि भारत अब एक 'हिंदुत्ववादी, अधिनायकवादी राष्ट्र' बन गया है, जहाँ अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राहुल गांधी स्वयं भारत के एक नेता होकर इन्हीं कथनों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दोहराते हैं।

क्या यह अनजाने में हो रहा है? शायद नहीं। यह एक सुव्यवस्थित विमर्श प्रतीत होता है, जो भारत की छवि को वैश्विक स्तर पर कमजोर करने का प्रयास करता है।


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3. अमेरिका में दिए गए भाषण: 'भारत एक राष्ट्र नहीं है'

राहुल गांधी के अमेरिका में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा — "भारत एक भूगोल नहीं, एक नेगोसिएटेड आइडिया है।" यह कथन सीधा-सीधा भारत की राष्ट्र की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न है। भारत कोई 'करार' नहीं है, यह एक संस्कृति है, संपूर्ण सभ्यता है, जो हजारों वर्षों से चली आ रही है।

यह विचार — कि भारत एक ‘बनावटी राष्ट्र’ है, जिसे जबर्दस्ती जोड़ा गया है — पाकिस्तान, ब्रिटिश विभाजनकारी नीति, और आधुनिक अंतरराष्ट्रीय भारत-विरोधी शिक्षाविदों का प्रिय नैरेटिव है। जब राहुल गांधी यही बात दोहराते हैं, तो उनकी भूमिका एक भारतीय नेता की नहीं, बल्कि वैश्विक मंचों पर भारतीय अस्मिता को कमजोर करने वाले वक्ता की दिखती है।


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4. भारत जोड़ो नहीं, भारत तोड़ो विमर्श का पोषण

"भारत जोड़ो यात्रा" का उद्देश्य था — नफरत के खिलाफ एकजुटता। लेकिन इस यात्रा के दौरान और बाद में राहुल गांधी ने लगातार ऐसे बयान दिए जो समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हैं।

उन्होंने कहा — "मुस्लिम डर के साये में जी रहे हैं।"

उन्होंने बार-बार SC-ST-OBC के साथ ‘अन्याय’ की बात की, परंतु बिना प्रमाण और समाधान के।

उन्होंने कश्मीर पर भारत सरकार के कदमों को ‘तानाशाही’ बताया, जबकि यह भारत की एकता का हिस्सा था।


यह सारे बयान भारत के भीतर एक सामाजिक संघर्ष का नैरेटिव रचते हैं — जो भारत विरोधी ताक़तों को ही लाभ पहुँचाता है।


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5. आंतरिक राजनीति या अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट?

राहुल गांधी ने हमेशा यह दर्शाया कि वे भारत में राजनीति करते हुए भी पश्चिमी विश्वविद्यालयों, मीडिया हाउसों और NGO नेटवर्क के माध्यम से वैश्विक मंचों पर खुद को ‘भारत में लोकतंत्र के रक्षक’ के रूप में पेश करते हैं।

उनकी विदेश यात्राओं के दौरान वे अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट से जुड़ी संस्थाओं, हार्वर्ड, ब्राउन, स्टैनफोर्ड जैसे संस्थानों के मंचों से भारत पर टिप्पणी करते हैं, जहाँ पहले से भारत-विरोधी वातावरण मौजूद रहता है। यह भारत की संप्रभुता और आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप को बढ़ावा देता है।


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6. इजराइल-फिलिस्तीन पर रुख: पाकिस्तानी पृष्ठभूमि की गूंज

राहुल गांधी ने हाल ही में इजराइल-हमास संघर्ष पर टिप्पणी करते हुए यह दिखाने की कोशिश की कि भारत को फिलिस्तीन के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। जबकि भारत की परंपरागत नीति ‘दोनों पक्षों को शांतिपूर्ण समाधान’ की रही है।

उनका यह पक्ष पाकिस्तान और भारत के वामपंथी वर्ग के अनुरूप है, जो भारत-इजराइल संबंधों से चिढ़ते हैं। क्या राहुल गांधी यह भूल जाते हैं कि इजराइल भारत का भरोसेमंद रणनीतिक साझेदार है?


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7. सेना और सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह: राष्ट्रविरोधी विमर्श का अंग

2016 और 2019 की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राहुल गांधी ने भाजपा पर ‘राजनीतिक ड्रामा’ करने का आरोप लगाया। वे ‘सबूत दिखाओ’ जैसे बयान देकर सेना की कार्रवाई पर भी प्रश्न उठाते रहे। क्या यह बयान भारत की सेनाओं का मनोबल गिराने वाले नहीं हैं?

जब कोई नेता सेना की राष्ट्ररक्षा को भी शक के दायरे में लाता है, तो देश की आंतरिक एकता को चोट पहुँचती है। पाकिस्तान और चीन इन्हीं बयानों का प्रयोग भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर करते हैं।


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8. कांग्रेस की चुप्पी: मौन सहमति या रणनीतिक समर्थन?

राहुल गांधी के ऐसे बयानों के बाद कांग्रेस पार्टी की ओर से अक्सर या तो चुप्पी रही, या फिर असंबद्ध समर्थन। यह दिखाता है कि या तो पार्टी उनके बयानों से असहमत नहीं है, या फिर उनमें साहस नहीं कि वे नेता से सवाल कर सकें।

यह संस्थागत पतन का प्रतीक है, जहाँ विचारधारा नहीं, बल्कि वंश के प्रति निष्ठा सर्वोपरि है।


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निष्कर्ष: क्या राहुल गांधी भारत के नेता हैं या भारत विरोधी विमर्श के वाहक?

राहुल गांधी की भूमिका आज उस “विदेशी पोपट” की तरह है, जो भारत की मिट्टी में खड़ा है लेकिन स्वर किसी और का निकालता है। उनकी भाषा, संदर्भ, विमर्श और विचार — सब कुछ भारत से नहीं, बल्कि अमेरिका, यूरोप और पाकिस्तान के वामपंथी वर्गों की सोच से प्रेरित प्रतीत होते हैं।

भारत की जनता उन्हें बार-बार खारिज कर चुकी है, लेकिन वे बार-बार उसी स्क्रिप्ट के साथ लौटते हैं। “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद का उनका बयान और पाकिस्तान-चीन के नैरेटिव को प्रतिध्वनित करने वाली उनकी भाषा — यह सिद्ध करती है कि यह मात्र ‘राजनीतिक अपरिपक्वता’ नहीं, बल्कि एक गहरी वैचारिक दरार है।

जब तक राहुल गांधी इस दरार को नहीं समझेंगे, तब तक वे एक ‘भारतीय नेता’ नहीं, बल्कि ‘विदेशी पोपट’ ही बने रहेंगे — जो भारत की परंपराओं को नहीं, केवल पश्चिम के कागज़ी आदर्शों को समझता है।

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