🧭 पश्चिमी देश, विशेषकर अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया, मानवाधिकार, लोकतंत्र और वैश्विक न्याय के सबसे बड़े पैरोकार होने का दावा करते हैं। लेकिन एशियाई देशों के प्रति उनका व्यवहार अक्सर उन मूल्यों के उलट होता है जिनकी वे दुहाई देते हैं। पश्चिम की यह नीति केवल रणनीतिक या आर्थिक विरोध नहीं है, बल्कि एक गहरे नस्लीय और सांस्कृतिक श्रेष्ठताबोध से प्रेरित है।
यह लेख पश्चिमी देशों के भीतर और बाहर के एशिया-विरोधी नस्लीय दृष्टिकोण, उनके ऐतिहासिक और आधुनिक प्रमाण, एशिया में चल रहे संघर्षों में उनकी भूमिका और वैश्विक न्याय प्रणाली पर इसके प्रभाव का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
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🧭 पश्चिमी नस्लीय श्रेष्ठता: ऐतिहासिक संदर्भ
1.1 उपनिवेशवाद की नस्लीय बुनियाद
पश्चिमी उपनिवेशवाद का आधार था 'सफेद सभ्यता' की श्रेष्ठता और बाकी सभ्यताओं की 'मुक्ति'।
“Civilizing Mission” और “White Man’s Burden” जैसी अवधारणाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि नस्लीय सोच केवल सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक औजार था।
1.2 एशिया को 'अन्य' मानने की परंपरा
एशियाई समाजों को 'रूढ़िवादी', 'तानाशाही-प्रवृत्त', 'अव्यवस्थित' और 'आर्थिक रूप से पिछड़े' के रूप में दिखाया गया।
यह औपनिवेशिक मानसिकता आज भी पश्चिमी राजनीति, मीडिया और अकादमिक विमर्श में मौजूद है।
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🧭 आधुनिक पश्चिम और एशियाई विरोध
2.1 यूरोप और एशिया
फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों ने एशिया में मानवाधिकार के नाम पर दखलंदाजी की परंपरा बनाए रखी है।
ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन ने भारत और ASEAN से व्यापारिक रिश्तों को कमजोर किया, लेकिन नैतिक भाषण देना जारी रखा।
2.2 अमेरिका की अगुवाई में एशिया-निरोधी मोर्चा
अमेरिका और NATO के सहयोग से एशिया में शक्ति संतुलन को रोका गया—QUAD, AUKUS, Indo-Pacific strategy इसी प्रयास का हिस्सा हैं।
अमेरिका ने चीन, ईरान और रूस को घेरने के नाम पर एशिया में सामरिक तनाव बढ़ाया।
2.3 ऑस्ट्रेलिया और नस्लीय घृणा
ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों और एशियाई मूल के लोगों पर नस्लीय हमले एक आम खबर बन चुके हैं।
“Go back to your country” जैसी मानसिकता वहां की सार्वजनिक चेतना में घर कर चुकी है।
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🧭 एशिया के नागरिकों के प्रति नस्लीय दृष्टिकोण
3.1 अमेरिका और यूरोप में एशियाई प्रवासी
कोविड-19 के बाद एशियाई मूल के लोगों पर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में हमले बढ़े।
मीडिया और राजनीतिक नेतृत्व के शब्दों (“Wuhan Virus”, “Asian Threat”) ने इस मानसिकता को उकसाया।
3.2 आंकड़े
“Stop AAPI Hate” रिपोर्ट (2020–22): अमेरिका में 11,000+ नस्लीय हमले
यूरोपीय संघ की रिपोर्ट (2021): 32% एशियाई प्रवासी नस्लीय भेदभाव का शिकार
ऑस्ट्रेलिया: 43% अंतरराष्ट्रीय छात्रों ने नस्लीय हमले या अपमान का अनुभव किया
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🧭 नीति और संस्थागत दोहरापन
4.1 मानवाधिकार केवल राजनीतिक हथियार
CAA, NRC, कश्मीर, ताइवान, तिब्बत जैसे मुद्दों पर अमेरिका और यूरोप ने नैतिक आलोचना की, लेकिन इजराइल-फिलिस्तीन, यमन, अफगानिस्तान, लीबिया में अपने समर्थन की आलोचना नहीं की।
भारत की आत्मनिर्भर नीति, चीन की BRI योजना, और ASEAN की क्षेत्रीय नीति पर बार-बार “ग्लोबल नॉर्म्स” की दुहाई दी जाती है, लेकिन पश्चिम अपने हितों में इन्हें तोड़ता है।
4.2 UNSC और वैश्विक संस्थाओं में एशिया की उपेक्षा
भारत, जापान, इंडोनेशिया जैसे देशों को सुरक्षा परिषद में स्थायी स्थान नहीं देना, जबकि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे पूर्व उपनिवेशवादी देशों को बनाए रखना नस्लीय असमानता है।
IMF, WTO, WHO में भी नेतृत्व का वर्चस्व पश्चिम के पास है, जबकि जनसंख्या और विकास में एशिया आगे है।
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🧭 एशिया में चल रहे संघर्षों में पश्चिम की भूमिका: नस्लीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन
5.1 इज़राइल–फिलिस्तीन संघर्ष में पश्चिम का पक्षपात
अमेरिका और यूरोप ने इज़राइल का एकतरफा समर्थन किया, जबकि गाजा के नागरिकों की हत्या, बुनियादी ढांचे की तबाही और मानवीय संकट को नजरअंदाज़ किया गया।
यह समर्थन नस्लीय पृष्ठभूमि से भी प्रेरित है—जहाँ फिलिस्तीनी और अरबों को “सांस्कृतिक रूप से असभ्य” और “आतंकी प्रवृत्ति वाले” दर्शाया जाता है।
5.2 ईरान के साथ पश्चिम का व्यवहार
ईरान पर लगे कठोर प्रतिबंध और JCPOA से अमेरिका का बाहर निकलना, एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र के आत्मबल को तोड़ने की रणनीति थी।
पश्चिम कभी भी ईरान को बराबरी का संप्रभु देश नहीं मानता, बल्कि “खतरे” के रूप में चित्रित करता है।
5.3 अफगानिस्तान और इराक युद्ध
पश्चिमी देशों ने “लोकतंत्र स्थापित करने” के नाम पर पूरे एशिया को युद्ध भूमि में बदल दिया, लेकिन आज तक वहां स्थिरता नहीं आई।
यह हस्तक्षेप स्थानीय संस्कृति, शासन और परंपराओं के प्रति उपेक्षा और नस्ली श्रेष्ठता की मानसिकता से प्रेरित था।
5.4 भारत-चीन, कोरिया, ताइवान–चीन तनाव में भूमिका
अमेरिका और यूरोप इन संघर्षों में अपनी सैन्य या कूटनीतिक उपस्थिति बनाकर टकराव को बढ़ावा देते हैं।
इन संघर्षों को ‘लोकतंत्र बनाम अधिनायकवाद’ के ढांचे में फिट करके वे नस्लीय ध्रुवीकरण करते हैं, जिसमें पश्चिम को “सच्चाई का रक्षक” और एशिया को “जोखिमपूर्ण” बताया जाता है।
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🧭 यह संघर्ष आर्थिक नहीं, नस्लीय है
6.1 पश्चिमी असुरक्षा बनाम एशियाई आत्मविश्वास
पश्चिम को डर है कि एशियाई सभ्यताएं अपने ऐतिहासिक आत्मविश्वास के साथ फिर से वैश्विक शक्ति बन रही हैं।
इसलिए तकनीकी, कूटनीतिक और सांस्कृतिक अवरोध पैदा किए जा रहे हैं।
6.2 नस्लीय श्रेष्ठताबोध का मनोविज्ञान
एशिया की सोच “समूह-संस्कृति”, “धर्म-केन्द्रित संतुलन”, और “प्रकृति-केन्द्रित विकास” पर आधारित है, जो पश्चिमी “इंडिविजुअलिज़्म” और “भौतिकवाद” से भिन्न है।
पश्चिम इस भिन्नता को 'हीनता' मानता है, जबकि यह वास्तव में विकल्प और विविधता है।
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🧭 समाधान और वैकल्पिक दृष्टि
7.1 एशिया के लिए
भारत, चीन, जापान, इंडोनेशिया जैसे देश वैश्विक नीति निर्माण में अपने अनुभव और मूल्यों के आधार पर हस्तक्षेप करें।
BRICS, SCO, ASEAN, SAARC जैसे मंचों को मजबूत बनाएं और नस्लीय न्याय को वैश्विक विमर्श में लाएं।
7.2 पश्चिम के लिए
आत्मनिरीक्षण करें कि क्या उनके “वैश्विक मूल्य” सचमुच सार्वभौमिक हैं या नस्लीय रूप से चयनित?
एशिया को बराबरी का भागीदार समझें, न कि केवल बाजार या भू-राजनीतिक मोहरा।
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🧭 निष्कर्ष
पश्चिम और एशिया का संघर्ष केवल भू-राजनीतिक या आर्थिक नहीं है, बल्कि यह सभ्यताओं का संघर्ष नहीं, नस्लीय श्रेष्ठता और समानता का संघर्ष है। जब तक पश्चिम अपनी “श्वेत नैतिकता” और “सभ्यता के मालिक” होने की मानसिकता से बाहर नहीं निकलता, तब तक वैश्विक शांति और न्याय एक स्वप्न ही रहेगा।
अब समय है कि एशि
या अपने सांस्कृतिक आत्मबल, वैज्ञानिक क्षमता और सामाजिक मूल्यों के साथ एक नवीन वैश्विक मानदंड स्थापित करे—जो बहुविधता, समता और सम्मान पर आधारित हो, न कि नस्लीय श्रेष्ठता पर।
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