संयुक्त राज्य अमेरिका को आज भी लोकतंत्र और मानवाधिकार का सबसे मुखर समर्थक माना जाता है। वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, वैश्विक न्याय के नाम पर अनेक युद्धों का नेतृत्व कर चुका है और अपने संविधान में समानता को सर्वोच्च मूल्य घोषित करता है। किंतु जब हम अमेरिका के भीतर और बाहर की नीतियों पर नज़र डालते हैं, तो एक भयावह सच्चाई सामने आती है: नस्लीय भेदभाव, एशिया के प्रति वैमनस्यपूर्ण दृष्टिकोण और दोहरा मापदंड।
यह लेख अमेरिका की नस्लीय मानसिकता, उसके ऐतिहासिक संदर्भ, आधुनिक प्रमाणों और विशेष रूप से एशियाई देशों, विशेषकर भारत और चीन, के प्रति उसकी नीतियों में छिपे नस्ली पाखंड को उजागर करता है।
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🧭 अमेरिका में नस्लवाद: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1.1 गुलामी से लेकर आज तक
17वीं शताब्दी से अमेरिका की राजनीति में नस्लवाद एक स्थायी तत्व रहा है। गुलामी, 'Jim Crow' कानून, और आधुनिक पुलिस हिंसा—ये सभी नस्ली सोच का ही विस्तार रहे हैं।
1.2 आधुनिक नस्लीय असमानता
1992 में रॉडनी किंग की पिटाई से लेकर 2020 में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या तक, अमेरिका में अश्वेतों और रंगीन नस्ल के लोगों के प्रति संस्थागत नस्लवाद की पुष्टि होती रही है।
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🧭 एशिया के प्रति अमेरिका का नस्लवादी व्यवहार
2.1 एशिया को 'खतरे' के रूप में देखना
अमेरिका एशियाई देशों को केवल सामरिक प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि एक 'असंगत सभ्यता' के रूप में देखता है।
'Yellow Peril' जैसी अवधारणाएँ आज भी बदले हुए रूपों में अमेरिकी मीडिया और नीतियों में मौजूद हैं।
2.2 भारत और चीन: दो सबसे बड़े लक्ष्य
भारत: भारत के उभार, आत्मनिर्भरता और डिजिटल सशक्तिकरण को अमेरिका 'सुरक्षा खतरा' बताकर बार-बार WTO, WHO और UNSC मंचों पर रोकता रहा है।
चीन: चीन की टेक कंपनियों (Huawei, TikTok) पर प्रतिबंध, दक्षिण चीन सागर में सैन्य घेराबंदी, और BRI परियोजना के विरोध में अमेरिका की सक्रियता दर्शाती है कि एशिया का नेतृत्व अमेरिका को असहज करता है।
2.3 ASEAN और ईरान के साथ भेदभाव
ASEAN देशों को अमेरिका केवल तब तवज्जो देता है जब वे चीन के खिलाफ खड़े होते हैं।
ईरान के साथ अमेरिका का व्यवहार नस्लीय, सांस्कृतिक और धार्मिक पूर्वाग्रहों से प्रेरित है।
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🧭 नस्लीय हिंसा: अमेरिका के भीतर एशियाई मूल के लोग
कोविड काल में 'चाइना वायरस' शब्द ने एशियाई मूल के अमेरिकियों पर हमलों की बाढ़ ला दी।
“Stop AAPI Hate” रिपोर्ट के अनुसार, 2020–22 में एशियाई अमेरिकियों पर 11,000 से अधिक नस्लीय हमले दर्ज हुए।
यह नस्लीय वैमनस्य केवल समाज तक सीमित नहीं, बल्कि सरकारी नेतृत्व से प्रेरित था।
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🧭 मानवाधिकार और नैतिकता पर अमेरिकी दोहरापन
जब अमेरिका चीन में उइगर मुसलमानों, भारत में CAA/NRC, या म्यांमार में रोहिंग्या का मुद्दा उठाता है, तो वह मानवाधिकार की दुहाई देता है। लेकिन जब खुद अमेरिका में अश्वेतों, एशियाई मूल के लोगों, या शरणार्थियों के साथ हिंसा होती है, तब वह या तो चुप रहता है या प्रतीकात्मक बयान देकर कर्तव्यों से पल्ला झाड़ लेता है।
अमेरिका ने कभी भी भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए खुले समर्थन नहीं दिया, जबकि भारत वैश्विक लोकतांत्रिक नेतृत्व का सशक्त उदाहरण है। यह भी एशिया के प्रति दंभ और नस्लीय असहजता का प्रमाण है।
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🧭 यह संघर्ष आर्थिक नहीं, नस्लीय श्रेष्ठता का है
6.1 पश्चिम का नस्लीय वर्चस्ववाद
पश्चिमी शक्तियाँ, विशेषकर अमेरिका, खुद को सभ्यताओं की नियंता मानते हैं। जब कोई एशियाई देश उसी स्तर पर पहुँचने लगता है, तो इसे “संभावित खतरा” बताया जाता है।
यह मानसिकता असल में नस्लीय श्रेष्ठता से प्रेरित है—जहाँ सफेद नस्ल, ईसाई मूल्य और पश्चिमी संस्कृति को ही श्रेष्ठ माना जाता है।
6.2 भारत और एशिया की स्वायत्तता के प्रति असहिष्णुता
भारत की डिजिटल संप्रभुता, रक्षा नीति और विदेश नीति को बार-बार अमेरिका “सुधारने” की कोशिश करता है।
एशिया के उभरते नेतृत्व (भारत, चीन, इंडोनेशिया, वियतनाम) को अमेरिका साझेदार नहीं, चुनौती मानता है।
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🧭 समाधान की दिशा: नस्लीय वैश्विक चेतना का निर्माण
7.1 अमेरिका के लिए:
उसे अपनी नीति और समाज में नस्लीय पूर्वाग्रह को समाप्त करने की ठोस पहल करनी होगी।
एशिया के साथ साझेदारी के आधार पर समानता का व्यवहार करना होगा।
7.2 एशिया के लिए:
एशियाई राष्ट्रों को सामूहिक रूप से पश्चिमी नैतिक पाखंड को चुनौती देनी होगी।
संयुक्त मंचों (G20, BRICS, SCO) में नस्लीय न्याय को विमर्श का हिस्सा बनाना होगा।
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🧭 निष्कर्ष
अमेरिका का एशिया के प्रति व्यवहार यह सिद्ध करता है कि यह संघर्ष केवल आर्थिक, कूटनीतिक या भू-राजनीतिक नहीं है—यह एक गंभीर नस्लीय टकराव है। जब तक अमेरिका अपने नस्ली श्रेष्ठताबोध से ऊपर उठकर वैश्विक समानता की वास्तविक भावना नहीं अपनाता, तब तक उसकी मानवाधिकार की बात महज़ एक भू-राजनीतिक औजार बनी रहेगी।
आज समय की मांग है कि एशिया—भारत, चीन, जापान, इंडोनेशिया जैसे देश—अपने सभ्यतागत आत्मविश्वा
स के साथ आगे बढ़ें और नस्लीय वैश्विक असमानता को न केवल चुनौती दें, बल्कि एक नवीन मानवीय विश्व व्यवस्था की नींव रखें।
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