(एक सांस्कृतिक, भाषिक एवं
भावनात्मक विमर्श)
🔷 प्रस्तावना
साहित्य का सबसे सूक्ष्म और सबसे शक्तिशाली पक्ष वह होता है जहाँ संवेदना शब्दों के पार जाती है। स्त्री-जीवन की अनुभूतियाँ हमेशा से साहित्य का एक जीवंत और भावप्रवण क्षेत्र रही हैं, किन्तु उनमें सबसे सच्चा स्वर वही होता है जो सत्ता से दूर, गूंज की तरह समाज में व्याप्त होता है।
ऐसे ही दो स्वर—थेरी गाथा और जंतसार—दो अलग-अलग युगों, भाषाओं और सामाजिक संदर्भों में उत्पन्न होकर, स्त्री की पीड़ा, आत्मा और मुक्ति की आकांक्षा को प्रकट करते हैं। एक बौद्धिक, आत्मान्वेषी और दार्शनिक; तो दूसरी लोकमूलक, श्रमशील और विवश लेकिन जीवंत। दोनों की अंतर्ध्वनि एक ही है—स्त्री की वेदना का अंतःस्वर।
🔷 1. थेरी गाथा: वैराग्य से उपजी आत्मस्वर की कविता
1.1 पृष्ठभूमि
थेरी गाथा (Therīgāthā) पालि साहित्य का एक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जिसमें बौद्ध भिक्षुणियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। इसमें लगभग 73 स्त्रियों की 500 से अधिक पद्यात्मक रचनाएँ संग्रहीत हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की मानी जाती हैं।¹
ये रचनाएँ उन स्त्रियों की हैं जो सांसारिक जीवन से ऊबकर, शोषण और अपमान से त्रस्त होकर बौद्ध भिक्षुणियाँ बनीं। उनमें आत्मबोध है, वैराग्य है, लेकिन उसके पहले एक गहरी सामाजिक वेदना भी है।
1.2 आत्मकथात्मक स्वर
थेरी गाथा का सबसे बड़ा साहित्यिक योगदान यह है कि यह स्त्री के आत्मकथात्मक स्वर को पहली बार भारतीय साहित्य में प्रमुखता से लाता है। इनमें स्त्रियाँ अपने अतीत की यातना को स्वीकारते हुए अपनी चेतना का उद्घोष करती हैं।
उदाहरण:
"काया में रूप था, मोह का फंदा था,
अब यह रूप मिट गया है, मैं भी बदल गई हूँ।" – अंबपाली थेरि
इसमें नारी अपने जीवन की विफलताओं, ठुकराए गए प्रेम, सामाजिक अपमान और शरीर से जुड़ी हुई अस्थायीता को आत्मसात कर धम्म की ओर मुड़ती है। यह बौद्धिक विद्रोह भी है और आत्मिक मुक्ति भी।
🔷 2. जंतसार: चक्की की आवाज़ में गूंजता स्त्री-हृदय
2.1 जंतसार की परंपरा
जंतसार (या जंतसर) उत्तर भारत के भोजपुरी, अवधी, मगही अंचलों में स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला श्रमगीत है, जो चक्की पीसते समय गाया जाता था। 'जांता' यानी हाथ से चलने वाली चक्की, और 'सर' यानी स्वर।²
यह गीत परंपरा न तो किसी मंच पर है, न किसी ग्रंथ में, न उसे किसी नामी कवयित्री ने रचा है—यह अनाम, अनलिखा, लेकिन अत्यंत मार्मिक है।
2.2 स्त्री की चुप्पी का गान
जंतसार उन स्त्रियों का काव्य है जो बोल नहीं सकती थीं—मायके की याद, ससुराल का तिरस्कार, परदेशी पति का वियोग, बेटियों की चिंता, गरीबी की लाचारी—यह सब उन्होंने चक्की की ध्वनि के साथ गा दिया।
उदाहरण:
"सासु से बात नाहीं, पिया गइलें कलकत्ता
जांता चलावत पुछेली बिटिया—माई रोवत काहे बाटा?"
ये गीत आत्मरक्षा भी हैं और आत्मशांतिप्राप्ति का एकमात्र रास्ता भी।
🔷 3. अंतःस्वर की समानता: तुलना और समांतरता
पहलू | थेरी गाथा | जंतसार |
---|---|---|
भाषा | पालि | भोजपुरी / अवधी |
कालखंड | ईसा पूर्व तीसरी शती | मध्यकाल से 20वीं सदी तक |
स्वरूप | पद्यात्मक, धार्मिक, आत्मकथ्य | मौखिक, श्रमगीत, सामूहिक गायन |
उद्देश्य | आत्मबोध, वैराग्य, मुक्ति | आत्म-सांत्वना, विरह-प्रतीक्षा |
रचनाकार | भिक्षुणियाँ | ग्रामीण स्त्रियाँ |
सामाजिक आधार | शिक्षित, धार्मिक परिवेश | श्रमिक, अशिक्षित परिवेश |
दोनों में स्त्री दृष्टि, चिंता और आत्मा है। यदि थेरी गाथा में स्त्री बोलती है, तो जंतसार में वह गाती है। दोनों ही मौन को तोड़ने का साधन हैं।
🔷 4. स्त्री-वेदना का ऐतिहासिक विमर्श
भारत में स्त्री की स्थिति सदियों तक केवल देह, धर्म और दायित्व तक सीमित रही। उसकी व्यथा को किसी धर्म, राज्य या साहित्य में पूर्ण स्थान नहीं मिला। थेरी गाथा जैसे ग्रंथ उस व्यवस्था को चुनौती देते हैं जहाँ स्त्री सोच नहीं सकती।
इसी तरह जंतसार एक अन-अकादमिक साहित्यिक बगावत है—जहाँ स्त्री जीवन की पीड़ा को गीत बना देती है, पर उसमें कोई उपदेश नहीं होता, सिर्फ एक प्राण-स्वर होता है।
🔷 5. लोक साहित्य और आत्मचेतना
थेरी गाथा धार्मिक चेतना का साहित्य है, जबकि जंतसार सांस्कृतिक-आर्थिक दमन का साक्ष्य है। फिर भी दोनों स्त्री की आत्मचेतना को जगाने का प्रयास करते हैं।
5.1 शिक्षा का प्रश्न
थेरी गाथा की स्त्रियाँ शिक्षित थीं, जंतसार की स्त्रियाँ नहीं। पर दोनों ही ने अपने अनुभव और विवेक के सहारे अपनी बात कही। यह हमें सिखाता है कि अभिव्यक्ति के लिए साक्षरता से अधिक जरूरी है – संवेदना और साहस।
🔷 6. आज का संदर्भ: पुनर्पाठ और पुनर्संरचना
आज की नारी जब सोशल मीडिया पर अपने विचार व्यक्त करती है या कविताएँ लिखती है, तो वह भी उसी परंपरा की उत्तराधिकारी है जो थेरी गाथा और जंतसार में शुरू हुई थी।
स्त्री के आत्मस्वर की यह यात्रा एक बिंदु पर पहुंचकर लौटती नहीं, वह निरंतर बढ़ती रहती है। यदि थेरी गाथा में उसने आत्ममुक्ति की राह पाई, तो जंतसार में उसने जीने की राह पाई।
🔷 7. निष्कर्ष
थेरी गाथा से जंतसार तक की यात्रा केवल भाषा, भूगोल या विधा की यात्रा नहीं है, यह एक संघर्षशील स्त्री मन की अंतःयात्रा है। यह हमें बताती है कि स्त्री कभी केवल 'शिकार' नहीं रही, उसने अपने भीतर की पीड़ा से कविता, गीत और दर्शन रचे।
जब कोई नहीं सुनता, तब स्त्री गाती है।
जब कोई नहीं पूछता, तब स्त्री लिखती है।
और जब कोई नहीं समझता, तब भी वह जिंदा रहती है – अपने अंतःस्वर में।
📚 संदर्भ ग्रंथ / Bibliography
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"Therīgāthā", Edited & Translated by K. R. Norman, Pali Text Society, Oxford, 1983.
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नीलिमा शर्मा: "पालि साहित्य में स्त्री विमर्श", राजकमल प्रकाशन, 2014।
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बिंदु चौधरी: "भोजपुरी लोकगीतों में स्त्री की छवि", प्रयाग महिला महाविद्यालय शोध-पत्रिका, 2020।
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वासुदेव द्विवेदी: "उत्तर भारत की लोकगीत परंपरा", साहित्य भवन, इलाहाबाद।
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रेखा अवस्थी: "हिंदी साहित्य में लोकसंस्कृति", प्रकाशन संस्थान, दिल्ली।
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जानकी नायर: "Women and Law in Colonial India", Kali for Women, 1996।
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R. K. Sharma: "Feminine Voice in Early Buddhism", Buddhist Studies Review, 2002।
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डॉ. प्रतिभा सिन्हा: "पूर्वी भारत की स्त्री लोककथाएँ", जनपथ प्रकाशन, वाराणसी।
📝 फुटनोट / Footnotes
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थेरी गाथा पालि कैनन (Khuddaka Nikāya) का हिस्सा है। इसमें भिक्षुणियों की जीवनकथाएँ काव्य रूप में दर्ज हैं।
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जंतसार शब्द “जांता” (हाथ की चक्की) और “सर” (स्वर) से बना है। इसका प्रयोग मुख्यतः भोजपुरी क्षेत्र में मिलता है।
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जंतसार गीत आज लगभग विलुप्त हैं। कुछ स्थानीय आर्काइव्स, लोककलाकारों और विश्वविद्यालयों में इसके संग्रह हो रहे हैं।
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थेरी गाथा का हिंदी अनुवाद डॉ. रमेश चंद्र और नीलिमा शर्मा द्वारा किया गया है।
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