अब्दुल और अतुल: असली उम्मा कौन?

 


 एक ही धरती, एक ही विरासत के पुत्र


भारत की सबसे बड़ी सामाजिक त्रासदी यह है कि यहां ‘अब्दुल’ और ‘अतुल’ एक-दूसरे को पराया समझने लगे हैं, जबकि वे दोनों एक ही संस्कृति, एक ही इतिहास और एक ही भूगोल की संतान हैं। यह भूल — कि भारत के मुसलमान किसी बाहरी नस्ल या सभ्यता से आए हैं — और मुसलमानों द्वारा खुद को अरब या फारस से जोड़े रखने की प्रवृत्ति — यही उस 'नासमझी' की जड़ है, जिससे भारत में सांप्रदायिकता बार-बार फूटती है।


यह लेख इसी ऐतिहासिक सच्चाई, सामाजिक यथार्थ और भविष्य की दिशा को समझने का प्रयास है: अब्दुल और अतुल अलग नहीं — वे एक ही जड़ से निकली दो शाखाएँ हैं। धर्म बदला है, रक्त नहीं। आस्था बदली है, आत्मा नहीं। भाषा और वेशभूषा बदली है, ज़मीन और ज़िंदगी नहीं।



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1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: धर्मांतरण की हकीकत


भारत में इस्लाम का आगमन व्यापार, सूफी सन्देश और बाद में आक्रांताओं के ज़रिए हुआ। लेकिन आम मुसलमान — जो आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते हैं — वे अरब, फारसी या तुर्क नहीं हैं।


वे उसी भारत भूमि की संतानें हैं, जिनके पूर्वज किसी दौर में हिन्दू, बौद्ध या आदिवासी रहे हैं।


धर्मांतरण के कारण भिन्न थे:


जातीय भेदभाव और सामाजिक ऊंच-नीच से मुक्ति की आकांक्षा


सूफी संतों की करुणा और प्रेमपूर्ण उपदेश


राजनैतिक और आर्थिक दबावों के चलते


कुछ मामलों में ज़बरदस्ती भी, पर वह व्यापक नहीं थी



धर्म बदला पर जड़ें नहीं। भारत का कोई मुसलमान अपनी मातृभाषा, अपनी मां की lullaby, अपने गाँव के पेड़ों की छाँव से खुद को अलग नहीं कर सकता।



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2. डीएनए और भाषा: विज्ञान की गवाही


आधुनिक विज्ञान ने इस सांस्कृतिक और सामाजिक एकता को आनुवंशिक रूप से भी प्रमाणित किया है। जीनोमिक्स (genomics) के कई अध्ययनों में सिद्ध हुआ है कि भारत के हिंदू और मुसलमानों का डीएनए लगभग समान है। उत्तर भारत के एक राजपूत और पठान मुसलमान का वंश तुलनात्मक रूप से एक ही सामाजिक धारा से निकला हो सकता है।


उदाहरण के लिए:


उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम अंसारी और एक हिंदू कुम्हार दोनों का आनुवंशिक डेटा उनके साझे सामाजिक उद्गम को दिखाता है।


बंगाल के मुस्लिम मियां और हिंदू घोष दोनों बांग्ला में सोचते, गाते, गाली देते और प्यार करते हैं।



भाषा में सांस्कृतिक जड़ें सबसे गहरी होती हैं। एक पंजाबी मुसलमान और पंजाबी हिंदू या सिख की बोली, हाव-भाव, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह की रस्में लगभग एक जैसी होती हैं। क्या यह कोई अरबियत है? नहीं — यह भारतीयता की सबसे सुंदर मिसाल है।



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3. संस्कृति और उत्सव: साझे रंग, साझे स्वर


अगर आप किसी छोटे शहर या गाँव में ईद, मुहर्रम, होली या दशहरा देखें — तो पाएँगे कि धार्मिक सीमाएं वहाँ बहुत पतली हैं। होली में मुसलमान भीगते हैं, ईद में हिंदू सेवइयाँ खाते हैं।


कई त्योहार तो ऐसे हैं जो धार्मिक कम और सांस्कृतिक अधिक हो चुके हैं:


मोहर्रम में हिंदू माताएं भी "हुसैन बाबा" की कसम खाती हैं


कव्वालियाँ हर मजहब के संगीतप्रेमी गाते हैं


शब्बीरपुर या आजमगढ़ के मज़ारों पर हिंदू चढ़ावा चढ़ाते हैं



भारतीय मुसलमानों की भोजन परंपरा — जैसे बिरयानी, कचौड़ी, हलवा, शिकंजी — यह सब किसी अरब देश से नहीं आया, बल्कि स्थानीय स्वाद और शैली से बना है।



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4. पहचान का भ्रम: सांप्रदायिकता की सबसे गहरी जड़


भारत के मुसलमानों का सबसे बड़ा संकट यह नहीं कि वे अल्पसंख्यक हैं, बल्कि यह है कि वे अपनी पहचान को लेकर भ्रम में हैं।


वे अक्सर खुद को "मुस्लिम उम्मा" का हिस्सा मानते हुए स्थानीय सामाजिक संदर्भों से कट जाते हैं। उनके लिए मक्का की पीड़ा तो महत्वपूर्ण है, पर मऊ, मेरठ या मलाड की हकीकतें अक्सर धुंधली हो जाती हैं।


दूसरी ओर, कई हिंदू उन्हें ‘पराया’ मानते हैं — एक ऐसे वर्ग के रूप में देखते हैं जो कभी भारत आया और अब कब्जा करके बैठा है। यह ऐतिहासिक अर्धज्ञान और संकीर्ण राजनीति से उपजा भ्रम है।


> असल में, यह नासमझी ही भारत में सांप्रदायिकता की सबसे गहरी जड़ है।





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5. 'बाँटो और राज करो': अंग्रेज़ों की धूर्त चाल


अंग्रेजों ने भारतीयों को बांटने के लिए धार्मिक पहचान को राजनीतिक पहचान बना दिया। 1909 के 'मॉर्ले-मिंटो सुधार' से लेकर 1947 के विभाजन तक, अंग्रेजों ने "हिंदू बनाम मुस्लिम" भाव को भड़काया।


अलग निर्वाचिका ने मुसलमानों को अलग सत्ता-इकाई बना दिया


मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसी ताकतें इसी अलगाव की उपज थीं



फिर आया विभाजन — और जो ज़हर अंग्रेज बो गए थे, वह अब भी हमारी नसों में बहता है।


लेकिन बंटवारे के बावजूद जो करोड़ों मुसलमान भारत में रहे — वे न पाकिस्तान के थे, न अरब के। वे इसी मिट्टी की संतान थे। और आज भी हैं।



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6. असली उम्मा कौन? पड़ोसी या पराया?


उम्मा का शाब्दिक अर्थ है — एक ऐसा समुदाय जो ईश्वर की राह पर एकजुट हो। पर भारत में यह शब्द कई बार एक भौगोलिक या राजनीतिक ढांचे के रूप में गलत ढंग से व्याख्यायित होता है।


जब भारत के मुसलमान गाज़ा पर रोते हैं — यह मानवीय है। लेकिन जब वही मणिपुर में हिंसा, राजस्थान में दलितों के शोषण या बिहार के हिंदू गरीबों की समस्याओं पर चुप रहते हैं — तो यह उम्मा की आत्मा से ग़द्दारी है।


> आपका असली उम्मा कौन है?

वह जो आपके साथ स्कूल में बैठा है, जो साथ काम करता है, जो खेत में हल जोतता है — वही अतुल, वही रामू, वही चंदन — यही असली उम्मा है।





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7. आत्मस्मृति की वापसी: यही समाधान है


इस पूरे संकट का इलाज क्या है? केवल एक — आत्मस्मृति। एक ऐसी स्मृति जिसमें अब्दुल यह समझे कि वह किसी रेगिस्तान का नहीं, बल्कि इसी गंगा-जमुनी परंपरा का उत्तराधिकारी है। और अतुल यह स्वीकार करे कि अब्दुल उसका भाई है — उसका साझेदार, प्रतिस्पर्धी नहीं।


इसके लिए कुछ ठोस कदम ज़रूरी हैं:


शिक्षा प्रणाली में भारत की मिश्रित विरासत को समुचित स्थान


धार्मिक नेतृत्व द्वारा समाज को जोड़ने वाले उपदेश


साझे उत्सव और interfaith dialogue


मीडिया द्वारा दो समुदायों के बीच सकारात्मक कहानियों का प्रचार




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निष्कर्ष: एक वृक्ष, दो शाखाएँ


‘अब्दुल’ और ‘अतुल’ दो शाखाएँ हैं एक ही वृक्ष की। धर्म उनकी पत्तियाँ हैं, जड़ नहीं। जब तक वे इस मूल सत्य को नहीं समझेंगे, भारत की सामाजिक छाया अपूर्ण रहेगी।


इसलिए आज का सबसे बड़ा राष्ट्रधर्म यह बनता है कि हम यह समझें — न कोई बाहर से आया है, न कोई पराया है। असली विभाजन धार्मिक नहीं, वैचारिक है — और वही सबसे घातक है।


> "हम न अरबी हैं, न फारसी, न तुर्क — हम इसी गंगा-जमुनी धरती के फूल हैं।"




तभी एक नया भारत बन सकेगा — जहाँ ‘अब्दुल’ और ‘अतुल’ साथ हँसेंगे, साथ लड़ेंगे, साथ गाएँगे:


> "सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ताँ हमारा..."




और उस दिन हम गर्व से कह सकेंगे:


> "यह नासमझी ही भारत में सांप्रदायिकता की सबसे गहरी जड़ थी — और हमने उसे समझकर जड़ से उखाड़ फेंका।"

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