🔹 प्रस्तावना
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व राजनीति एक ऐसे मोड़ पर पहुंची, जहाँ अमेरिका ने स्वयं को विश्व का नेता घोषित कर दिया। लोकतंत्र, मानवाधिकार और वैश्विक शांति के नाम पर उसने जो वैश्विक हस्तक्षेप किए, वे समय के साथ अनेक युद्धों, विद्रोहों और अस्थिरताओं का कारण बनते गए। अमेरिका ने अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए "अराजकतावादी" नीतियाँ अपनाईं – ऐसा अराजकतावाद जो न किसी सिद्धांत से बंधा है, न किसी वैश्विक व्यवस्था को मान्यता देता है।
इस लेख में हम अमेरिकी अराजकतावाद के विभिन्न आयामों की गहराई से पड़ताल करेंगे और देखेंगे कि यह किस प्रकार विश्वशांति के मार्ग में एक बड़ा अवरोध बन गया है।
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🔹 1. अराजकतावाद की परिभाषा और अमेरिकी स्वरूप
राजनीतिक शास्त्र में अराजकतावाद (Anarchism) का अर्थ होता है सत्ता, व्यवस्था और नियंत्रण के हर स्वरूप का विरोध। किंतु अमेरिका के संदर्भ में यह अराजकतावाद एक सत्तात्मक अराजकतावाद है, जो दूसरों के लिए नियम बनाता है पर स्वयं किसी नियम को नहीं मानता।
अमेरिका की नीतियाँ यह दर्शाती हैं कि वह अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों, संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों और संप्रभु देशों की स्वायत्तता को तभी मानता है जब वे उसके हित में हों।
अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के निर्णयों को बार-बार अनदेखा किया (जैसे इराक युद्ध, येरुशलम को इज़राइल की राजधानी मानना)
अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) की वैधता को नकारना
जलवायु परिवर्तन समझौते (Paris Accord) और ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) से एकतरफा हट जाना
यह सारी प्रवृत्तियाँ उसे एक राजकीय अराजकतावादी ताकत में बदल देती हैं।
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🔹 2. शांति स्थापना के नाम पर हिंसा का निर्यात
पिछले सात दशकों में अमेरिका ने 70 से अधिक देशों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैन्य हस्तक्षेप किया है। इनमें से अधिकांश कार्यवाहियाँ शांति स्थापित करने के नाम पर की गईं, किंतु परिणामस्वरूप वहाँ अस्थिरता और युद्ध ही पनपे।
देश हस्तक्षेप का वर्ष परिणाम
वियतनाम 1955–1975 20 लाख से अधिक नागरिक हताहत
इराक 1991, 2003 देश विखंडित, आईएसआईएस का उदय
अफगानिस्तान 2001–2021 20 वर्ष बाद भी तालिबान की सत्ता वापसी
लीबिया 2011 सरकार गिराई गई, देश गृहयुद्ध में फंसा
सीरिया 2011–वर्तमान लाखों शरणार्थी, अराजकता का माहौल
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि अमेरिका ने शांति के नाम पर सिर्फ अपने सैन्य-औद्योगिक परिसर को मज़बूत किया और जिन देशों को "मुक्त" किया, वे आज भी संघर्ष और खूनखराबे में डूबे हैं।
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🔹 3. अमेरिकी सैन्य उद्योग और युद्ध का व्यावसायीकरण
"War is business" – यह वाक्य अमेरिका के रक्षा उद्योग की सच्चाई को प्रतिबिंबित करता है। अमेरिका का रक्षा बजट दुनिया के कुल रक्षा खर्च का लगभग 38% है। उसके सैन्य-उद्योगिक समूह जैसे Raytheon, Lockheed Martin, Boeing आदि को लाभ केवल तब होता है जब युद्ध चलता रहे।
2001 से 2021 तक अमेरिकी रक्षा उद्योग ने अफगानिस्तान और इराक युद्धों से खरबों डॉलर कमाए।
अमेरिका हर साल अरबों डॉलर के हथियार नाटो, पश्चिम एशिया, एशिया और अफ्रीका को बेचता है।
हथियारों की होड़ को अमेरिका "रक्षा जरूरत" का नाम देकर बढ़ावा देता है।
यह एक प्रकार का संगठित अराजकतावाद है, जिसमें युद्ध लोकतंत्र फैलाने का माध्यम नहीं, बल्कि बाजार विस्तार का औजार बन गया है।
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🔹 4. बहुपक्षीय संस्थाओं की अवहेलना
अंतरराष्ट्रीय शांति और सहयोग के लिए बनाए गए संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC), अमेरिका की नीतियों के सामने अक्सर बौने सिद्ध होते हैं।
अमेरिका ने ICC को मान्यता नहीं दी और अपने सैनिकों के खिलाफ मुकदमों की अवहेलना की।
UNESCO और WHO से फंडिंग रोक दी गई जब उनकी नीतियाँ अमेरिका को रास नहीं आईं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का दुरुपयोग कर अमेरिका ने बार-बार इज़राइल जैसे सहयोगियों को बचाया।
इससे यह प्रतीत होता है कि अमेरिका की दृष्टि में वैश्विक संस्थाएं तब तक वैध हैं, जब तक वे उसके हित की सेवा करें।
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🔹 5. एशिया और पश्चिम एशिया में अमेरिकी भूमिका
भारत
अमेरिका ने भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी तो स्थापित की, परंतु अपनी शर्तों पर:
रूस से S-400 खरीदने पर भारत को CAATSA प्रतिबंधों की चेतावनी
चीन के विरोध में QUAD जैसे गठबंधनों में शामिल कराने का दबाव
तेल व्यापार में डॉलर निर्भरता बनाए रखने के लिए ईरान से तेल आयात पर रोक
पश्चिम एशिया
फिलिस्तीन-इज़राइल संघर्ष में अमेरिका ने हमेशा इज़राइल का समर्थन किया, जिससे अरब विश्व में असंतोष फैला।
ईरान परमाणु समझौते से बाहर निकलकर अमेरिका ने खाड़ी क्षेत्र को फिर अस्थिर किया।
सीरिया में बशर अल-असद सरकार को हटाने की कोशिशों ने वहाँ गृहयुद्ध भड़काया।
इससे स्पष्ट है कि अमेरिका ने एशिया में केवल शांति की घोषणाएं कीं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसकी भूमिका विघटनकारी रही।
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🔹 6. यूरोप और नाटो: अमेरिकी छाया में गठबंधन
यूरोपीय देश ऐतिहासिक रूप से शांति और मानवाधिकारों के पक्षधर रहे हैं, परंतु नाटो के माध्यम से अमेरिका ने उन्हें अपनी सैन्य नीति का हिस्सा बना लिया।
यूक्रेन-रूस संघर्ष में यूरोप ने अमेरिका की नीति का अनुसरण किया और युद्ध को लंबा खींचा।
फ्रांस और जर्मनी जैसे देश भी अब हथियार बेचने की होड़ में लग चुके हैं।
यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा भी अमेरिका की राजनीतिक चालों की भेंट चढ़ी (Nord Stream-2 विवाद)
यानी अब यूरोप भी अमेरिका की अराजक नीति का अनुगामी बनता जा रहा है, जिससे विश्व में स्वतंत्र बहुपक्षीय संवाद का मंच कमजोर हो गया है।
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🔹 7. अमेरिका की दोहरी नीति: मानवाधिकार बनाम स्वार्थ
हॉन्गकॉन्ग, ईरान, वेनेज़ुएला में लोकतंत्र के नाम पर आंदोलन को समर्थन, परंतु सऊदी अरब, मिस्र, इज़राइल जैसे दमनकारी सहयोगियों की आलोचना नहीं।
चीन में उइगर मुसलमानों के मुद्दे को उठाना, पर ग्वांतानामो बे जैसे यातना शिविरों को जारी रखना।
फेक न्यूज़, साइबर सुरक्षा पर दुनिया को उपदेश देना, लेकिन खुद NSA द्वारा वैश्विक नेताओं की जासूसी करना।
इन दोहरापन भरी नीतियों ने अमेरिका की वैधता और नैतिक अधिकार को गंभीर रूप से कमजोर किया है।
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🔹 8. बहुध्रुवीय विश्व की आवश्यकता और भारत की भूमिका
आज की दुनिया एकध्रुवीय व्यवस्था को अस्वीकार कर चुकी है। रूस, चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ के माध्यम से एक स्वतंत्र धारा की रचना कर रहे हैं।
भारत जैसे देश, जिनका ऐतिहासिक दृष्टिकोण शांति, संवाद और सह-अस्तित्व पर आधारित है, वे इस बहुध्रुवीय व्यवस्था में सशक्त भूमिका निभा सकते हैं।
भारत को अमेरिकी दबावों का सामना करते हुए अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को मजबूत करना होगा।
ईरान, रूस, अफ्रीका, एशिया के साथ साझेदारी बनाए रखनी होगी।
ब्रिक्स, NAM, SCO जैसे मंचों को फिर से शांति और वैश्विक न्याय के वाहक बनाना होगा।
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🔹 निष्कर्ष: क्या अमेरिका विश्वशांति का रक्षक है या सबसे बड़ा संकट?
👉 अमेरिका आज जिस "शांति" की बात करता है, वह हथियारों से बंधी हुई शांति है।
👉 अमेरिकी अराजकतावाद ने वैश्विक संस्थाओं को कमजोर किया है, क्षेत्रीय असंतुलन पैदा किया है और विश्व को स्थायी युद्ध के रास्ते पर धकेला है।
👉 आज जब जलवायु संकट, आर्थि
क मंदी और तकनीकी युद्ध मानवता के सामने खड़े हैं, तब शांति की सच्ची पैरोकारी की आवश्यकता है – जो केवल भारत जैसे देशों से संभव है।
✍️ अंततः,
यदि अमेरिका अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं करता, तो आने वाला युग "विश्वशांति" नहीं, बल्कि "वैश्विक अव्यवस्था" का युग होगा – और अमेरिका उसका सबसे बड़ा उत्प्रेरक।
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