कौन-सी रस्म सबसे जरूरी है विवाह के लिए

सामाजिक माध्यम हमारे व्यवहार, चिंतन और विचार-विनिमय की रीढ़ बन गए हैं। ऐसे में सामाजिक माध्यमों पर चलने वाली बहसें आज महत्वपूर्ण हैं। छठ पर्व के बहाने बिहार की स्त्रियों के नाक पर सिंदूर लगाने के प्रश्न को लेकर हिन्दी की प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने पूरे स्त्री समुदाय में सिंदूर के प्रयोग को प्रश्नांकित किया। इसपर सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ लिखा भी गया और परंपरागत मीडिया ने भी इस मुद्दे पर पर बहस की। अवश्य ही यह नया प्रश्न नहीं है, पर उन्होंने इसे नए सिरे से इसे उठाया है। हममें से तमाम परिवारों की स्त्रियां सधवा धर्म के पालन के लिए सिंदूर का प्रयोग करती हैं, जबकि पुरुष इस तरह का कोई विवाह चिह्न धारण नहीं करते। यह सामाजिक विभेद की प्रवृत्ति को बतता है। आज की युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इससे दूर जा रही है वह भी बिना किसी हो-हल्ले के। यह भी उतना ही सही है जितनी पहली बात।
इन सभी प्रश्नों से अलग एक और सवाल है कि क्या एक हिन्दू स्त्री के लिए सचमुच सिंदूर अनिवार्य है ? क्या इसका कोई शास्त्रीय विधान है या जिस विवाह मंडप में एक लड़की को सिंदूर पहनाकर स्त्री बना दिया जाता है, उसके विधान में कोई इसकी अनिवार्यता है ? अगर ध्यान से देखा जाय तो पूरे वैवाहिक संस्कार में हर एक क्रियाकलाप के लिए कोई-ना-कोई मंत्र नियत हैं, जैसे- कन्यादान, सप्तपदी आदि। लेकिन, सिंदूर पहनाने के लिए कोई मंत्र नहीं है। कन्यादान की तरह ही विवाह की पोथियों में इसे सिंदूरदान कहा जाता है। शायद यह एक मात्र ऐसा दान है जिसका प्रतिदान इससे महंगा होता है। पर इस दान-प्रतिदान का कोई मंत्र नहीं है। इस समय पुरोहित मंत्र के रूप में आशीर्वचन पाठ करते हैं। इसे ही भ्रमवश कुछ लोग मंत्र मान लेते हैं।
यदि सिंदूर दान सचमुच विवाह संस्कार का इतना बड़ा हिस्सा है कि उसके बिना विवाह पूरा नहीं होता तो उसका मंत्र भी होना चाहिए। देखा तो यहां तक गया है कि किसी की मांग में सिंदूर मात्र डालना शादी मान ली जाती है। तमाम निचली जातियों में बड़े भाई के मरने के बाद छोटे भाई को बड़े भाई की पत्नी को अंधेरे कमरे में चादर में सिंदूर डालकर पत्नी बनाकर रख लेने का अधिकार था। समाज से इसकी मान्यता के लिए बस एक भोज की ज़रूरत होती थी और समाज इस रिश्ते को स्वीकार लेता था। इसमें ना पुरोहित की ज़रूरत होती थी और ना ही मंत्र की। आज स्थितियां बदली हैं और वहां भी संस्कृतिकरण हुआ है। इसलिए आज उस समाज में भी इस तरह के विवाहों का चलन कम हुआ है। शेष हिन्दू विवाह पद्धति में भी प्राचीन काल में विवाह के कई रूप चलन में थे, जैसे गंधर्व विवाह, राक्षस विवाह आदि। इनमें सिदूर-दान का मैंने कहीं जिक्र नहीं सुना।
सिंदूर का संस्कृत नाम क्या है ? नाग रक्त या नाग रेणु। नाग किसे कहते थे ? नाग का अर्थ केवल सर्प नहीं, पर्वत और कन्दराओं में रहने वाले लोगों से भी होता है, क्योंकि नाग के पर्वत और जंगल दोनों अर्थ होते हैं। मतलब यह कि सिंदूर का संबंध समाज की उस मुख्यधारा से नहीं है जिसे हिन्दू कहते हैं, बालकों इसका संबंध जंगलों और कन्दराओं में रहने वाले लोगों से है। आदिवासियों और जनजातियों से है। यह प्रथा जनजातियों से अपने को आर्य कहने वाले लोगों ने ग्रहण की।
भारतीय जीवन में ऐसी तमाम व्यवस्थाएं, परम्पराएं और आचार-व्यवहार हैं जो अनार्य कही जाने वाले समुदायों की देन है। नृतत्त्ववेत्ता, विमर्शकार और भाषाविद क्षमा करेंगे आर्य शब्द एक ज़माने में भद्रता का वाचक था और आर्य-अनार्य का नृजातीय झगड़ा ब्रिटिश और यूरोपीय उपनिवेशवादियों की देन है। ‘कृंण्वतोहम विश्वमार्यम’ की घोषणा करने वाले ये भद्रजन भी आदिवासियों, अनार्यों और अंतजों की परम्पराएं ग्रहण करते थे, उनको सम्मान देते थे और अपने ग्रन्थों में ग्रहण कर लेते थे। इसे रिवर्स कल्चरइजेशन कहते हैं। मेरे मत में सिंदूर परंपरागत पोथियों में इसी तरह आया और इसीलिए इसके लिए मंत्र की जगह आशीर्वचन की व्यवस्था दी गई गई।
यहीं एक बात और। मैंने कुछ तथाकथित विमर्श देने वाली स्त्रियों से यह भी सुना है कि मंगल सूत्र गले की फांस है और बीछूया भी ऐसा ही कुछ। मुझे माफ करें। मंगल सूत्र का व्यापक चलन और प्रसार नब्बे के दशक और उसके बाद हुआ है, वह भी फिल्मों के रास्ते। अन्यथा स्त्री के लिए पूरे भारत में इनका चलन नहीं है।
मैंने अपनी माँ, दादी या उन जैसी गांव की औरतों को कभी मंगल सूत्र पहने नहीं देखा है। सिंदूर भी शायद इसी तरह एक ज़माने में चलन में आया होगा और धीरे-धीरे फैलता गया और अंततः विवाहित स्त्री का अनिवार्य शृंगार बन गया।
अब फिर मैत्रेयी पुष्पा की बात। बिहारी स्त्रियों द्वारा छठ पर नाक से मांग तक सिंदूर लगाने की परंपरा पर उनका प्रश्न वास्तव में रोचक है। खासकर मेरे लिए जो खुद को आधा बिहारी मानता हूं और जिसका घर बिहार से बस चार-पास कोस की दूरी पर है। क्या बदल जाता है जब इतनी ही दूरी पर छठ का व्रत रहते हुए मैंने अपनी माँ को इस तरह सिंदूर लगाते नहीं देखा। हां, यह कह सकता हूं कि अर्घ्य देकर हर स्त्री जब आलाब से निकलती थी तो एक दूसरे के मांग में सिंदूर भर कर उसका आशीर्वाद लेती या देती थी। अब स्त्री विमर्षकार इसका अर्थ पुरुष सत्ता का निषेध या प्रतिरोध लेना चाहें तो लेती रहें, पर यह तथ्य है और ऐसा उस हर त्यौहार पर होता था, जब स्त्रियां सामूहिक रूप से नहाने तालाब पर जाती थीं। इस तरह विशेष रूप से मुझे यही लगता है कि यह सम्मान और शुभकामना देने का एक तरीका था।

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